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Channel: अनुशील
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अवलंब...!

आँखों में आयाआकर रुक गया...आंसू तुम जैसा था क्या ?ढलकते ढलकते चूक गया...!अब भी अटका हैपलकों पर...औरमुस्कुरा रहा है...उदास सी हैकोई रागिनी...वही वो कतरागा रहा है...सुन सुन करविभोर हूँ...मैं रात्रि का...

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बस कुछ नमी हो...!

झिलमिल आँखों की नमीनम करती रही मन प्राण अंतरजीवन चलता रहा समानांतर...!दुःख की रागिनी गाती रहीसुख के स्वप्न दिखाती रही"एक ही सिक्के के दो पहलू हैं"-सुख दुःख की आवाजाहीबस मन को यूँ बहलाती रही...!सुख हो...

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ज़िन्दगी, तुम्हारे लिए!

कितनी हीउलझनों सेघिरी हुई हो तुम...कितनी ही उलझनेंमुझको भी घेरे है...फिर भीएक दूसरे के लिएहम बिलकुल अपने है...ये आने जाने का किस्सा हैजन्मों के ये फेरे हैं...तुम्हारे लियेतुम्हारी खातिर...सब सह लेने का...

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शीर्षकविहीन...!

भींगे मौसम मेंयाद आती है..."स्नेहिल"धूप स्मरण हो आता हैकितनी ही...कविताओं का स्वरुप रो पड़ता है मन...!जीवन झेल रहा होता है मृत्युतुल्य कष्ट...तभी कोई संजीवनी शक्ति कह उठती है भीतर से--रूठ जाना भी है नेह...

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तुम अप्रतिम गीत हो...!

हे मीत! हे सखे!तुम सांध्यगीत हो...हारती रही हूँ सदा से मैंतुम मेरी जीत हो...!जीवनबहुत कठिन है बंधू...तुम इस नीरवता मेंमेरे लिए जीवन गीत हो...! मत चले जाओयूँ बिसार कर...नहीं बचेगा कुछ भी शेषकि तुम मन से...

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बार्सिलोना यात्रा संस्मरण: कुछ चित्र कुछ अनुभूतियाँ...

जीवन ही यात्रा है... जाने अगले पल क्या घटित होना है किसे पता... हर क्षण अपने भीतर कोई न कोई आश्चर्य लिए ही प्रकट होता है... बस कभी हम महसूस कर पाते हैं उस आश्चर्य को... उस चमत्कार को... तो कभी वह...

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अन्तर्द्वन्द...!

ठिठका  सा हैवातावरणमेरे शब्द मौन हैं…चुप चुप से सोच रहे हैंव्यक्त हो पाये जो शब्दों मेंऐसे भाव गौण हैं…!तो लिखना क्या…जो हैं नहीं वो दिखना क्या… बसनम आँखों से अभीआते जाते पलों कोमहसूस रहे हैं…भ्रम चहुँ...

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भींगा भींगा शहर है...!

खूब सारे रंग हैंबारिश है…भींगा भींगा शहर है…! खुशियाँ अनचीन्हीं अजानी हैं…बादलों के पीछे सेझाँकतीजरा सी धूप है…  अजाने ग़मों का कहर है…! हर क्षणबीत रही है…ज़िन्दगीढ़लता हुआ पहर है…!!

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क्षणिक जीवन का शाश्वत खेल...!

दूरियों  के मानकनम करते रहे मन प्राण अंतर...जीवन चलता रहा समानांतर... वैसे ही जैसे चलती हैं रेल की पटरियां...एक निश्चित दूरी बनाये हुएकि... पहुँच सके गंतव्य तक रेलपटरियों की यात्रा अनंत तक हैशायद वहां...

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बूँदें हैं, नमी है...!!

बादल हैं, बारिश है, बूँदें हैं, नमी है...सफ़र में साथ साथ चल रहेआसमां और ज़मीं हैं...यहाँ सब कुछबिखरा बिखरा है...हो सके तो आ जाओदोस्त! तुम्हारी ही कमी है...कितनी दूरी है, है कितना सामीप्यकहो! क्या कभी...

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शीर्षकविहीन...!

समय बदल जाता है...हम बड़े हो जाते हैं...हमारी जगह बदल जाती है...नए लोग हमारे अपने हो जाते हैं... हमारे "आज"का आसमानहमें बुलाता है...हमारे "कल"की धरतीहा! अकेली हो जाती है...! आँखों की नमीजब सब धुंधला कर...

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... ... ... ??

१९९८ में कभी लिखी गयी यह लम्बी प्रश्नमाला... पहले कभी एक टुकड़ायाद के आधार पर लिखा था अनुशील पर इधर... आज डायरी के पन्ने कुछ और ढूंढते हुए मिल गए तो सोचा सहेज लें... प्रश्नों की माला तो सजा दी है......

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जरा गुनगुना कर देखो...!

अँखियों मेंएक ख़्वाब नयासजा कर देखो...मंज़िल भी मिल जाएगीज़रा कदम तो बढ़ा कर देखो!भूलना हो गर...अपने हिय का दर्ददूसरों के गम को अपना कर देखो!अनुभूति में है बसतीइसकी आत्मा...ज़िन्दगी को कभीकिताबी...

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वो केवल निमित्त थी...!

नियति नेसब तय कर रखा होता है...लीलाधर की लीला हैसब परमेश्वर की माया है...निमित्त मात्र बना कर लक्ष्य वो साधता हैईश्वर स्वयं पर कभी कोई इलज़ाम नहीं लेता है यूँ रचे जाते हैं घटनाक्रम बड़े उद्देश्य की...

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कभी तो हमें अपना कहोगे...!

कभी तो किनारे मिलेंगेमुरझाये चेहरे कभी तो खिलेंगेकभी तो नाव किनारे लगेगीज़िन्दगी कभी तो ज़िन्दगी की तरह मिलेगीकभी तो हमें अपना कहोगेकब तक यूँ सपना रहोगे...कभी तो जरा सा अवकाश होगासाथ दो घड़ी का सुकून...

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हम बिन पानी के मीन हैं...!

खिली रहेमुस्कान...धारा संग निश्चितनाव का प्रस्थान...हम सबअपने अपने "तुम"तक की यात्रा मेंतल्लीन हैं...स्वाभाविक है बेचैनियाँ...कि हमबिन पानी के मीन हैं...!!ये "तुम"स्व की ही पहचान है...अनन्य-अभिन्न,वो...

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"वो खिड़की, खुली रखना..."

...आंसुओं से ऐसा कुछ रिश्ता बन गया है... कि इसके सिवा कुछ सूझता ही नहीं आजकल... कितना कुछ है करने को... पढने को कितनी किताबें झोला भर कर ले आये हैं लाइब्रेरी से... लिखने को कितना कुछ है... कितनी...

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कबीरा खड़ा बजार में...!

काश!हमारे पास घर होता,तो फूंक डालते...फूंक डालने के लिएघर होना ज़रूरी हैऔर वो भी अपना...;व्यथित है मन आजक्यूंकि,जो मन चाहे वो नहीं कर सकते,अभाव कुछ नहीं है...कहीं नहीं है;लेकिन,हमारे पास कुछ अपना भी तो...

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अनचीन्हे... अनजाने द्वीप...!!

हों जलते हुए दीप,दिल हों समीप...!फिर रौशनी ही रौशनी है,जोसंग सद्भावों के होंमोती... सीप...!!मन के आँगन को,फिर से दिया लीप...!साफ़ सुथरी हो गयी माटी,ये जाना--हम सब हैंसागर मध्य खोये हुए द्वीप...!!नियतिले...

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सब तुम्हारे नाम करते हैं...!!

ऐसा ही है जीवनहसरतें पूरी नहीं होतीं...उत्तर की  आस ही  शायद व्यर्थ हैहर बात हर किसी के लिए जरूरी नहीं होती...कुछ मिलते सार्थक सवाल भी अगरज़िन्दगी यूँ अधूरी नहीं होती...हम प्रश्न हो करप्रश्नचिन्ह बन कर...

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