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"वो खिड़की, खुली रखना..."
बस यूँ ही शुरू कर दिये लिखना... ये सोचें कि सब ठीक हो जायेगा फिर आराम से लिखेंगे तब तो हो गया इसलिए अब यूँ सोच लेते हैं कि लिखेंगे तो सब ठीक हो जायेगा धीरे धीरे... कि जो छूट गया हमसे वो सुशील जी की ली गयी तस्वीरों में है... और जो उनसे छूट गया उन दृश्यों की तस्वीरें हमने ले रखी हैं...! ऐसी ही एक तस्वीर है यह... बुडापेस्ट की सुबह की... डेन्यूब ने शहर को जैसे प्रतिविम्ब होने की सहूलियत दे कर कितने ही दर्द को पनाह दिया हो... कि पानी में सब झिलमिल सुन्दर था...
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