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Channel: अनुशील
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"वो खिड़की, खुली रखना..."

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...आंसुओं से ऐसा कुछ रिश्ता बन गया है... कि इसके सिवा कुछ सूझता ही नहीं आजकल... कितना कुछ है करने को... पढने को कितनी किताबें झोला भर कर ले आये हैं लाइब्रेरी से... लिखने को कितना कुछ है... कितनी यात्राएं अनलिखी पड़ी हैं... कब करेंगे ये सब अगर ये रोने धोने में ही लगे रहेंगे...! लिखा जाना इस लिए जरूरी है क्यूंकि लिखा जायेगा तभी मेरी यात्रा पूरी होगी... सुशील जी कहते हैं... कि हम तो होकर भी वहां नहीं होते जहाँ फिजिकली प्रेजेंट होते हैं... इस यात्रा में भी ऐसा ही था... हम लोग घूमने निकलते थे बेहद थक हार जाने के बाद किसी ट्राम पर... कि बैठे बैठे शहर देख लेंगे... तब हम या तो कागज़ कलम में व्यस्त होते या कोई किताब होती हाथ में... या फिर जाने क्यूँ आँख भरी होती और हम दुपट्टे से अपना मुंह ढक कर बस सो/रो रहे होते... ऐसे में बस यही फंडा है हमारा... "आप देख लीजिये... तस्वीरें ले लीजिये... हम इसपर बाद में बात कर लेंगे... आपके थ्रू ये सब बाद में हम घूम लेंगे कि अभी कहीं और है मन... क्या देखे नज़ारे... मन में जब सागर उमड़ा हुआ हो...!"तो तस्वीरों और उनके विवरण को भी तो लिखना है न... तभी तो पूरी होगी यात्रा कि जितने भी शहर घूमे हम... सब आधा अधूरा ही देखा... आधे समय उलझे जो रहे... और सुशील जी ने सारे प्रूफ रखे हैं मेरी बदमाशियों के... मेरी रोती हुई कितनी ही तस्वीरें... अभी जब क्लिक की गयी करीब आठ हज़ार तस्वीरों से टुकड़ों टुकड़ों में इन पांच छः दिनों में गुज़रे हैं... तो यही पाया... आधी तस्वीरें शहरों की हैं... और आधी मेरी विभिन्न बदमाशियों की... एक तस्वीर हम दोनों की संग है... जो हमने प्राग के हिमालय रेस्टोरेंट में उस लड़की से क्लिक करवाई थी... 

उस रेस्टोरेंट में हम दो बार गए थे अपने दो दिनों के स्टे में... और दोनों दिन उस विशाल करीने से सजे रेस्टोरेंट में हम दोनों ही अकेले विजिटर थे... खूब तस्वीरें ली... आराम किया... मुस्कुराते हुए बुद्ध की प्रतिमा को प्रणाम किया... कुछ बेहद सुन्दर पल बिताये वहाँ... याद रहेगा हिमालय... वहां बैठे हुए हमने कागज़ की नाव जो बनायी थी...!



बस यूँ ही शुरू कर दिये लिखना... ये सोचें कि सब ठीक हो जायेगा फिर आराम से लिखेंगे तब तो हो गया इसलिए अब यूँ सोच लेते हैं कि लिखेंगे तो सब ठीक हो जायेगा धीरे धीरे... कि जो छूट गया हमसे वो सुशील जी की ली गयी तस्वीरों में है... और जो उनसे छूट गया उन दृश्यों की तस्वीरें हमने ले रखी हैं...! ऐसी ही एक तस्वीर है यह... बुडापेस्ट की सुबह की... डेन्यूब ने शहर को जैसे प्रतिविम्ब होने की सहूलियत दे कर कितने ही दर्द को पनाह दिया हो... कि पानी में सब झिलमिल सुन्दर था...



पोलैंड के तीन शहर... वहां से प्राग... फिर बुडापेस्ट... इतने सारे शहरों... देशों की कथा लिखनी हो तो पहले ही यात्रा वाली थकान हो जाती है... अभी तो थकान मिटी भी नहीं है... टूटे फूटे लौटे हैं... पहले ठीक तो हों... 
लिखते हैं सब विस्तार से...

तब तक इसके साथ विराम लेते हैं जो वार म्यूजियम से लौटते हुए क्राकोव स्टेशन पर बैठ कर लिखे थे... बहुत उदास था मन... जिन मंज़रों को देख कर लौटा था मन उसके बाद सामान्य स्थिति में लौट आना बेहद कठिन था... खूब रोने की इच्छा थी... पर नहीं रो सकते थे... सेंट्रल स्टेशन पर सीन थोड़े न क्रिएट करना था... सो कागज़ कलम लेकर शब्दों में ही उलझाना था खुद को... शब्द वो दर्द नहीं व्यक्त कर सकते... लेकिन विडम्बना है शब्दों के अलावा कोई विकल्प भी नहीं... और व्यक्त होना भी जरूरी है... कि दुःख रिसता है... उसे यूँ बंद करके नहीं रखा जा सकता... संग्रहालय तो बना दिया इतिहास में हुई क्रूरता का पर वो केवल संग्रहालय नहीं है... वो दुखद स्मृति है हमारे वहशीपने की जो रिसती रहेगी पोर पोर से दर्द बन कर आने वाली शताब्दियों तक... लौटने वाली हर आँख नम थी जिसने भी वो मंज़र देखा... हम तो सिर्फ संग्रहित यादें देख कर लौट रहे थे... पर उस दर्द की परिकल्पना से सिहरे हुए भी थे...



आज भी गूंजता है सन्नाटा वहाँ पर...
मौत को यूँ देख कर जिंदगी की भाग दौड़ में बस शामिल हो जाना इतना सहज नहीं... पर यात्रा है न... चलना तो था... अब प्राग बुला रहा था हमें...


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