१९९८ में कभी लिखी गयी यह लम्बी प्रश्नमाला... पहले कभी एक टुकड़ायाद के आधार पर लिखा था अनुशील पर इधर... आज डायरी के पन्ने कुछ और ढूंढते हुए मिल गए तो सोचा सहेज लें... प्रश्नों की माला तो सजा दी है... शायद उत्तर होने का क्रम भी यहीं से सीख पाए हम और प्रभु की प्रेरणा से उत्तरों की श्रृंखला भी लिख पाएं कभी...!!!
पूछेंगे तुमसे हम एक रोज़ भगवन कि कहाँ है तुम्हारा निवास कहाँ है प्रकाश क्यूँ भेजा हमें यहाँ सबकुछ है बिखरा जहाँ दीनू को मरता देख दिनेश आद्र क्यूँ नहीं होता मंगू क्यूँ अक्सर भूखे ही है सोता क्यूँ दीप झोपड़ी का बुझा बुझा सा होता है जबकि महलों में दिवाली का सा माहौल बना होता है रौशनी भी क्यूँ छलती है क्यूँ दीन हीन साधनविहीन जनता न्याय के लिए हाथ मलती है क्यूँ बिकती है दुकानों में रखी हुई आस्था बीच सामानों के समय का रुख क्यूँ बेरहमी से करवटें बदलता है क्यूँ खोजने पर भी आयाम नहीं मिलता है क्यूँ हर पल कमी खलती है क्यूँ समय के आगे हमारी एक नहीं चलती है क्यूँ लूटने का सिलसिला रुकता नहीं फूलों की डाली सम क्यूँ इंसान झुकता नहीं दर दर भटकने के बाद भी क्यूँ अमृत तत्व नहीं मिलता आखिर क्यूँ बेबस एक भी पत्ता नहीं हिलता अखबार खून से लथपथ क्यूँ होता है खोखला करने वाले काँटों को कौन और आखिर क्यूँ बोता है क्यूँ बुढ़िया रो रही है क्यूँ दुनिया सो रही है क्यूँ तुम्हारा विम्ब नहीं मिलता मेरे आसपास फूल क्यूँ नहीं खिलता पूछेंगे तुमसे हम एक रोज़ भगवन
क्यूँ भक्ति का प्रसाद नहीं बंटता है बादलों का काला समूह हृदय से क्यूँ नहीं छंटता है इंसान को इतना कमज़ोर बना कर क्यूँ भेजा क्यूँ पग पग पर बस मरीचिका ही सहेजा शरीरधारी क्यूँ बन जाते हैं अधम अभिमानी सुना था निश्चल बहता है तेरी करुणा का पानी रामराज्य की नींव क्यूँ हिल जाती है क्यूँ धरा को रक्तरंजित अन्धकार की किरणें लील जाती हैं हमारा अहम् क्यूँ नहीं मरता क्यूँ हमें हरिनाम नहीं मिलता क्यूँ जनमानस की सुधि कोई नहीं लेता क्यूँ नाविक उस वेग से नैया नहीं खेता क्यूँ स्थितियां डांवाडोल हैं क्यूँ धोखाधड़ी मक्कारी की नहीं खुलती पोल है सब एक ही बार में समाप्त क्यूँ नहीं हो जाता विनाश का तांडव क्यूँ हर रोज़ है रुलाता पूछेंगे तुमसे हम एक रोज़ भगवन
कुशाषण की लपटों में क्यूँ भुनती है जनता दो पाटों के बीच क्यूँ कुछ भी साबुत नहीं बचता बस यूँ ही कोई क्यूँ किसी को है छलता हर आँख में क्यूँ रेगिस्तान ही है ढ़लता हाथ में खंजर लिए क्यूँ इंसान चल पड़ा है खुदाई को रौंदने का मिथ्या मद क्यूँ बढ़ा है क्यूँ ऐसा लगता है जैसे कोई पल पल चूसते जाता हो प्राण और पल पल हो रही हो जैसे आस्था अंतर्ध्यान संजीवनी लिए खड़े पवनसुत हमें प्राण क्यूँ नहीं देते एक गदे के प्रहार से क्यूँ कुबुद्धि नहीं हर लेते सीमा आग से क्यूँ धधक रही है बंटी हुई धरती अबतक फफ़क रही है इस भंवर जाल में क्यूँ नहीं दीखता कोई मसीहा क्यूँ नहीं हो जाती आत्मा स्वार्थ के कारागार से रिहा हम क्यूँ हर पल झूठे सपने हैं संजोते और क्यूँ मोह मद में पड़कर सबकुछ हैं खोते काहे दिया उदास लगता है गोविन्द के देश में हर कोई हरि को ठगता है राजमहल में सिहांसन पर क्यूँ वैभव ही बस दूना है कांटो भरे ताज से अनुप्राणित कर्मपथ क्यूँ सूना है क्यूँ एक बार ही जडें नहीं उखड़ जातीं क्यूँ अज्ञान निर्लिप्त बुद्धि नहीं सुधर जाती शाषण क्यूँ दुशाषण का दास है किसने सौंपी नर भाग्य की कुंजी उसके पास है पूछेंगे तुमसे हम एक रोज़ भगवन
सुना है तुम्हारी लीला स्थली में अब भी तुम्हारा निवास है क्यूँ तब भी अचेतन सा बादलों का उच्छ्वास है मंदिर में पूजा का रूप हमें वीभत्स क्यूँ दीखता है तुम्हारे दरबार में हर कोई अपना नियम लिखता है क्यूँ आडम्बर का बोलबाला है और भक्त भक्ति सहित कृशकाय काला है काहे इतनी घी की बातियाँ यहाँ जलती हैं और इधर सैकड़ों दीन हीन सांसें अंधकार की लौ में पलती हैं प्रकाशपूंज होकर ऐसी पूजा क्यूँ ग्रहण करते हो करुणानिधान हो कर मंदिर की ऊंची दीवारों के बीच रहते हो यहाँ क्यूँ अभाव पलभर के लिए भी नहीं फटकता है और एक सिपाही के घर में चूल्हा सुलगने को ललकता है तुम्हारी मूर्ती के सत्कार में हर भक्त लगा रहता है और कहीं बेचारा मूर्तिकार भूखे ही सब सहता है तुम्हारी करुणा सबको देती है दिशा फिर क्यूँ तेरे दरबार में शीश नवाने वालों की नहीं हर ली जाती है निशा मंदिर की सीढ़ियों पर दीन का बसेरा क्यूँ है तुम्हारा दरबार यूँ भिखारियों से घिरा क्यूँ है वो कैसे सारी व्यवस्था पर तमाचा जड़ता हुआ चला जाता है इंसा तो इंसा ईश्वर तक इस दौर में छला जाता है रामनाम की चादर ओढ़ क्यूँ वह अन्याय का पक्ष लेने को आमादा है तेरे दरबार के आडम्बरियों ने अभी कहाँ तुझे साधा है जब छल छद्म ने तेरे दरबार को भ्रष्ट किया तब नियति ने क्यूँ अपना विरोध नहीं स्पष्ट किया पूछेंगे तुमसे हम एक रोज़ भगवन
विकारों का क्यूँ सघन होता जाता है आकार तर्क वितर्क के चक्कर में प्रज्ञा को क्यूँ विचलित करता है व्यभिचार काहे द्वन्द चला करता है नर समाज में पामर क्यूँ भला रहता है आत्मा पर क्यूँ एक व्यूह सा रचा है और रंगमंच पर केवल चाम का तांडव ही मचा है चेतना संसार में रहने की जहमत क्यूँ उठाती है अरे! यहाँ तो खुलेआम अस्मत लूटी जाती है काहे तेरा संसार माटी का दीवाना है भोग से भाग इसे तो मीलों दूर जाना है क्यूँ पंछी उड़ा करते हैं क्यूँ हमारी आस्था से हर पल दीमक जुड़ा करते हैं गतिहीनता विराट रूप में क्यूँ डसती है विपदा क्यूँ ऐसी क्रूरता से हंसती है प्राण विहीन अशक्त समुदाय का संगीत कहाँ खोया है रणबांकुरे का अदद उत्साह कहाँ सोया है क्यूँ रामबाण से प्राण नहीं फूंके जाते क्यूँ अभागे नर मूढ़ता का गुणगान किये नहीं अघाते सबको साथ लेकर मंजिल तक पहुँचने की बात भूल सी गयी है इर्ष्या द्वेष के पुलिंदों में ध्येय की पोटली खुल सी गयी है हर पल मोह निशा का अन्धकार छलने में पारंगत है फिर भी हमारा हिय क्यूँ निर्मोही जीवन का शरणागत है पूछेंगे तुमसे हम एक रोज़ भगवन