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Channel: अनुशील
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शीर्षकविहीन...!

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समय बदल जाता है...
हम बड़े हो जाते हैं...
हमारी जगह बदल जाती है...
नए लोग हमारे अपने हो जाते हैं... 


हमारे "आज"का आसमान
हमें बुलाता है...
हमारे "कल"की धरती
हा! अकेली हो जाती है...! 


आँखों की नमी
जब सब धुंधला कर देती है...
ज़िन्दगी अपने नाम को सार्थक करती हुई
विडम्बनाओं से घेर लेती है... 


तो...
पिता प्रवेश करते हैं कविता में...
नम आँखों को दृढ़ता का पाठ पढ़ाते हैं...!
"जीवन ममत्व ही नहीं
कठोर अनुशाषण भी है" --
ये सत्य जताते हैं...! 


उनसे बेहतर
और कोई नहीं महसूस कर सकता
जीवन की इस प्रवृति को...
के ममत्व से भरा हृदय लिए हुए
वो जीवन पर्यंत कठोरता की प्रतिमूर्ति बने रह जाते हैं! 


बस इसलिए
कि वे वो संतुलन हैं...
जो जीवन को जीवन बनाता है...
ऐसा करते हुए
कई बार पिता बच्चों का
आसमान हो जाता है...  


वह आसमान
जिसका होना
एक अदद छत का होना है! 


भले ही
इसके लिए उस आसमान को
कितना ही क्षत विक्षत क्यों न होना हो
वह होता है सहर्ष
वर्ष दर वर्ष
कि
हम अपना आदर्श वहीँ से गढ़ सकें...
कर्मपथ पर वहीँ से ले प्रेरणा बढ़ सकें... 


वो हमारे विश्वास की रीढ़ है
हमारे संस्कारों की तरह अचल दृढ़ है


हमारी डूबती नैया की पतवार बन जाते हैं
समय आने पर पिता ममत्व का अवतार बन जाते हैं 


अब आज ही की बात है...


मेरे आसपास
बड़ा उचाट सा दिन है बड़ी उदास सी रात है
कविता भी दूर हो गयी... कहने लगी नीरस तुम्हारा साथ है 


तब पिता मुस्कुराये
कविता पर... कविता में 


और कहा...


"चलती चलो
जीवन है... परिस्थितियों संग ढ़लती चलो
अन्तःस्थिति को संवारो
परिस्थितियां स्वतः घुटने टेक देंगी
विश्वास रखो स्वयं पर नौकाएं तूफानों की रफ़्तारें देख लेंगी" 


ये सब लिखते हुए 

हम भीतर ही भीतर 

रुंधे हुए गले से जाने क्या गा रहे हैं...
पिता याद आ रहे हैं... !!
*** *** ***
यूँ ही जाने क्या सोचते समझते किस प्रेरणा ने यह सब लिखवाया... क्या शीर्षक दें... शीर्षकविहीन ही रहें ये भाव... शब्दों के अभाव को भावों की उर्वरता का शीर्षक मिले... दूरियों को संवेदनाएं पाट दें... मुस्कुराता रहे जीवन... मुस्कुराता रहे परिवार... मुस्कुराते रहें दुनिया के हर पिता...!!!


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