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Channel: अनुशील
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अनन्य प्रीती...!

हे जीवन!तुमने कह लिया...अब सुनो हमसे...जो तुमअब कह पाये शब्दों में,वह हमेंपहले से ज्ञात है...तुम्हें क्या लगता हैकोई रहस्योद्घाटन किया है तुमने...?बंधू, तुम भले न रहे हो साथ रह कर भी साथ पर फिर भी कुछ...

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यही जुड़ाव जीवन है...!

आकाश से शायद बूँदें गिर रही हैं... क्या पता उसे भी कोई दुःख हो... या फिर ख़ुशी के आंसू रो रहा हो अम्बर... या ये हो कि बस रोने के सुख की खातिर रो रहा हो...! बहुत अँधेरा है... न आसमान से गिरती बूंदें दिख...

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दर्द... हमदर्द...!

क्या?हाथ जला लिया?फिर...?ओह! कैसे...?कहाँ रहता है ध्यान...तुम्हारा?क्या सोचती रहती हो...?मन किस शून्य में विचरता है...?ठोकर खाती होगिर जाती हो...अभी उसी दिन तोगिरी थी न...जाने वो चोटठीक हुई भी कि...

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जाने उद्गम है क्या, स्रोत किधर...?

तुम्हारीएक मुस्कान के लिए,किया कितना कितना इंतज़ार...और जब झलकी वोतेरे मुख पर,खिल गया मेरा उर संसार... तुम्हारा प्रेमतुम्हारी राह का दीप बनकरे रोशन हर दिशा का द्वार...तुम्हारा प्यारहमारी राह की...

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फिर भी आस अशेष...!

रात भरअपलकजगे हुए बीती...नअँधेरा हारान मैं जीती...! कहती ही रहीस्नेहमयीरात...देनी चाहीउसनेनींदिया की सौगात... पर दीप जल रहा थातो लौ संगमैं भी जगी रही...उसने नहीं माना अपनापर मैं फिर भीउसकी सगी...

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लेखनी से संवाद!

मैंनहीं लिखना चाहतीकुछ भी...लेखनी! सुनो...इस सुबहमैं नहीं होना चाहतीतुम्हारे साथ...क्यूंकि...अब मुझे कुछ नहीं कहना है...!इस बीत रहे वर्ष काहर लम्हा अब खामोश रहे...मेरे आंसू ही बसअब मेरे पास रहे...शब्द...

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जाने क्या...!

इतने अकेले क्यूँ हो जाते हैं हम कि हमारी चीख भी नहीं पहुँचती किसी तक... हमारा फूट फूट कर रोना भी सुकून नहीं देता कि आंसू भी जैसे अपने न हों... इस वर्ष की शरुआत रोते हुए ही हुई थी और जब जा रहा है तो भी...

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असम्बद्ध टुकड़े...!

यहाँ अजब परिपाटी है... न रहने के बाद ही लोग याद करते हैं... जीवन रहते याद आने को तरसते हुए ही कटती है अक्सर ज़िंदगियाँ...***बहुत डर लगता है... सब रूठ जाते हैं मुझसे... जिन्हें हम चाहते हैं... मानते...

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लड़खड़ाते ही सही... चल पड़ा जीवन!

समय का दोष नही हैसारा दोष मेरा है...व्यथित हृदय...आहत अंतर्मन...इनकी असह्य पीड़ा कैसे जीयूं... पर जीना है...!जाने किस कोने मेंछुपी बैठी है मुस्कान...एक अरसा बीता... मिली नहीं मुझसेकहाँ से खोज लाऊं...

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लिखना क्यूँ ज़रूरी है...?

लिखना...मृत्यु से गुज़र करमृत्यु को जीतने जैसा है...लिखना...मेरे लिएकिसी बेहद अपने कीऊँगली पकड़ कर चलने जैसा है...लिखना...तड़प कोघड़ी भर का विराम दे जाता है...लिखना...बेचैनियों कोभला सा एक नाम दे जाता...

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कितने ही रंग...!

उदासी केकितने ही रंग...सब एक साथमुझे मिल गए...!उन रंगों मेंजाने क्या था ऐसा...?मन के अनगिनतह छिल गए...!!अब रिसता दर्दहा! अपनी ओर सेध्यान हटने ही नहीं देता...देख पातीतो शायद दिखती कहींदुबकी हुई ख़ुशी...

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सागर, अपनी अनुभूतियाँ कहते रहना...!

सागर किनारे... वहाँ इस समय जाना चाहिए...! ठण्ड से ठिठुरती... अपने एकांत में मुस्कुराती... निर्जन तट से टकराती लहरों के बीच...! व्याकुल मन की समस्त उलझनें दूर हो जाएँगी, कुछ पलों के लिए ही सही......

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नया दिन...!

चिरंतन के लिए 'नया दिन'शीर्षक से कुछ लिखना था... आभार चिरंतन, नए दिन के लिए... नयेपन की उम्मीद के साथ कुछ लिखने को प्रेरित करने के लिए... यहाँ भी सहेज लें, नए दिन की ओर अनमने देखती नज़र और मौन प्रार्थना...

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अजाने फ़लक की तलाश में!

ज़िन्दगी नेमुझेअपना कहा...फिर,कुछ यूँ हुआवो मुझसे रूठ गयी...अब हर क्षणगुज़रता है विह्वलतड़पते हुए...सागर, अम्बर औरछू कर गुजरने वाली हवा सेउलझनें कहते हुए...उससेबात नहीं होती...मैं अपने साथ हो कर भीअपने...

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समय की शिला पर...!

मुरझाते हुएखिलते हुए...कोहरों मेंमिलते हुए...कोहरे से हीनिकलते हुए...अजानी राहों केराही हम... जुदा डगर परचलते हुए...सपनों की तरहनयनों में पलते हुए...एक अरसे बादमिले हम...दोनों की ही आँखें नम... ये अब...

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घर की ओर देखते हुए...!

एक आंसू...एक मुस्कान...दोनों के प्रतिमानदिख रहे हैं मुझेआसमान से गिरतेबर्फ के फ़ाहों में...अपने घर से बहुत बहुत दूरजहां बैठी हूँ मैंवहाँ से खुलती हुई खिड़कीमुझे दिखाती हैदृश्य कई कईरोज़ रंग बदलता है...

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साथ चलें...!

चलो ऐसा करेंसाथ चलें...इन हवाओं में बिखरेजो संदेशें हैं,उन्हेंएक एक कर बांचें...और उनसे जुड़ते चले जाएँ...चलो ऐसा करेंशाम ढले...ढलते सूरज कोएकटक देखें,गढ़ेंमन ही मन सुकून...और उसमें डूबते चले जाएँ...चलो...

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साथ ही हैं...!

कश्तियाँजब लग रहीं हों किनारेतब मझधार को याद करनहीं शोक मनाना...हमें भूल जाना...ज़िन्दगी जब मुस्कुरा रही होगीत सुहाने गा रही होसाथ गाते जाना...जीवन का गीत सुहाना...जब कभी दुःख की बदरी छायेतुम्हें कोई...

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फिर मिलेंगे न हम...!

तुम आये थे...स्वप्न की तरह...हँसते मुस्कुराते उपहार लिए...जीवन की राहों में...क्षीण संभावनाओं की संकरी गली में...आकाश सा विस्तार लिए...सुन्दर पलों को गूंथ कर...समय को जैसे कुछ पल के लिए थाम लिया...

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स्नेह की छाँव...!

ये एक उदास सी सुबह है... आसमान में खूब सारे काले बादल हैं... तीन बजे का आकाश कुछ कुछ रौशनी बिखेर रहा है... जरा बुझा बुझा सा... कि शायद रात भर रोया है अम्बर... अब रुदन कहें या बारिश ये तो हमारे मन के...

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