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Channel: अनुशील
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फिर भी आस अशेष...!

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रात भर
अपलक
जगे हुए बीती...

अँधेरा हारा
न मैं जीती...! 


कहती ही रही
स्नेहमयी
रात...
देनी चाही
उसने
नींदिया की सौगात... 


पर दीप जल रहा था
तो लौ संग
मैं भी जगी रही...
उसने नहीं माना अपना
पर मैं फिर भी
उसकी सगी रही...


अँधेरे से
उजाले की ही
बात करती रही...
बार बार मैं
आस विश्वास से
अपना दामन भरती रही...


लेकिन
सब जाने कहाँ
गुम हो जाता था...
रिक्त पात्र
स्वयं को लाख प्रयास के बाद भी
रिक्त ही पाता था... 


तार-तार
था दामन
किन धागों से सीती...

अँधेरा हारा
न मैं जीती...!!

लौ को
निहारते हुए
उदास अँधेरे को देखा...
कोहरे से घिरी हुई
बड़ी महीन थी
उजाले और अँधेरे के बीच की रेखा...

जीवन का ही
ताना बाना
दोनों बुन रहे थे...
बारी बारी से
दोनों ही
एक दूसरे की सुन रहे थे...

सूरज का आना
शेष था, फिर भी
गढ़े जा रहे थे उजाले...
एक दीप था
जो जगा रहा साथ
अनगिन सपने पाले...

कोई पंछी नहीं
कहीं कोई आहट नहीं
न ही कहीं आवाज़ कोई...
या तो लौ कभी
लड़खड़ा जाती थी
या फिर कभी मैं रोई...

उदास सी सुबह
फिर भी आस अशेष
यही है जीवन की रीति...
भले ही
न अँधेरा हारा
न मैं जीती...!!!


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