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Channel: अनुशील
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लेखनी से संवाद!

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मैं
नहीं लिखना चाहती
कुछ भी...


लेखनी! सुनो...
इस सुबह
मैं नहीं होना चाहती
तुम्हारे साथ...



क्यूंकि...
अब मुझे कुछ नहीं कहना है...!


इस बीत रहे वर्ष का
हर लम्हा अब खामोश रहे...
मेरे आंसू ही बस
अब मेरे पास रहे...



शब्द शब्द दर्द की कथा
फिर कभी...
थक गया है मन
अब और चलना नहीं अभी...


इतने में
लेखनी बोली-
कह लिया न
अब तुम सुनो---
तुम्हें क्या लगता है
तुम कहती हो?
अरे! तुम हमेशा तो चुप ही रहती हो...!



ये
वो दूर की कोई
प्रेरक शक्ति है...
जो कह जाती है...
और तुम्हें जाने क्यूँ
हर बार ये भ्रम रहता है...
कि कविता घटित होती होती रह जाती है...



सुनो, तुम नहीं लिखती...
मैं लिखती हूँ...
हाँ! ये बात और है
मैं नहीं दिखती तुम दिखती हो...


और
जो कहीं
कविता है न
तो वो सतत जारी है...
तू निमित्त है
और मैं भी मात्र जरिया हूँ
लिखने वाली प्रेरणा है
वो कहाँ कभी भी हारी है...! 


जो कहीं
कविता है न
तो वो सतत जारी है...!!!

***
इस सुबह अँधेरे में टटोलती रही अपना मन... नहीं कुछ भी कहना था फिर भी वाचाल तम कहता रहा... सूर्योदय तो शायद ही हो... नौ दस बजे तक ही शायद कुछ रौशनी हो बाहर... रात भी ऐसी कि इधर न चाँद ही निकल रहा है... न तारे ही हैं और न ही बर्फ के फाहे... अँधेरा ही अँधेरा है... 
आसमान को सब छोड़ गए हैं...!
स्टॉकहोम की एक खामोश सुबह... पंछी अब अपने मौसम में ही आयेंगे और गायेंगे... सो इस समय ये भी आस नहीं कि कोई चिड़िया फुदकती हुई आ जायेगी... ख़ामोशी थी... है... और रहेगी... कि छुट्टियाँ हैं तो सब छुट्टी पर हैं... एक आंसुओं को छोड़ कर!!!
कागज़ कलम आपस में बात कर रहे थे... उनका ही कहा उनसे ही सुना कुछ उतार दिया यहाँ भी...!
समय बीत जाएगा... हम भी बीत जायेंगे पर फिर भी कुछ है जो नहीं बीतेगा कभी... उस शाश्वत अंश को प्रणाम!

शुभ दिवस...!


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