इतने अकेले क्यूँ हो जाते हैं हम कि हमारी चीख भी नहीं पहुँचती किसी तक... हमारा फूट फूट कर रोना भी सुकून नहीं देता कि आंसू भी जैसे अपने न हों... इस वर्ष की शरुआत रोते हुए ही हुई थी और जब जा रहा है तो भी यह वर्ष बेतरह रुला रहा है... मन बहुत उदास है... कहीं कोई सिरा नहीं मिलता... अजब स्थिति है... कहीं कोई नहीं है... दुनिया यूँ रमी हुई है अपनी धुन में कि न किसी को किसी से कोई लेना देना है न किसी को किसी की फ़िक्र ही है... कुछ रीत ही ऐसी है शायद... सब समझदार हैं... नासमझी सिर्फ मेरे ही पल्ले आई है...
निराश हताश मन से हम टुकड़े समेट रहे हैं... कांच के टुकड़ों को समेटना आसान कहाँ... कहीं न कहीं लग ही जायेगी हाथ में कोई नोक और लहुलूहान हो जाने हैं सारे आस विश्वास के प्रतिमान!
हाथ जो है जख्मी वह तो ठीक हो जाएगा पर मन जो हो छलनी तो भी क्या भर जाते हैं जख्म... कौन जाने!
बारिश की बूंदें बूंदों में भींगती हुई मैं...
कोहरे में डूबी धरती और अपने गंतव्य की ओर भागती हुई रेल...
पटरियों पर पसरी उदासी और उन उदासियों को अपने भीतर सींचती हुई मैं...
हम सब साथ चले दूर तक अकेले फिर ले ली अपनी अपनी राह... किसी ने किसी को फिर याद नहीं किया नहीं हुई किसी को किसी की परवाह...
धरती कोहरे से घिरी रही... पटरियां उदासियों को जीती रहीं... रेल भाग रही थी... भागती रही... और मैं... मैं थी ही कहाँ... मैं कहीं भी तो नहीं...!