यहाँ अजब परिपाटी है... न रहने के बाद ही लोग याद करते हैं... जीवन रहते याद आने को तरसते हुए ही कटती है अक्सर ज़िंदगियाँ...***बहुत डर लगता है... सब रूठ जाते हैं मुझसे... जिन्हें हम चाहते हैं... मानते हैं... उनसे बात करने के लिए तरसते रह जाते हैं... ये अभागापन नहीं तो और क्या है, कि ज़िन्दगी! तू भी तो अक्सर रूठी हुई ही मिलती है मुझे...***आज पुरानी कहानियां बेतरह याद आ रही हैं... वो कहानियां जो उन नादान दिनों में लिखी थी कभी और कब वक़्त ने टुकड़े टुकड़े कर दिए उन पन्नों के... पता ही नहीं चला! वो किरदार जैसे आज पास आ बैठे हैं मेरी नम आँखों में कोई रौशनी ढूँढने या शायद कोई रौशनी देने... मरे हुए लोग कैसे आ जाते हैं न कभी स्वप्न में और कितनी ही बातें कह जाते हैं... वैसे ही शायद ये किरदार भी वक़्त के हाथों नष्ट हुई कहानी से निकल कर अपना फ़र्ज़ निभाने आये हों... एक टूटे बिखरे इंसान को हौसला देना आसान तो नहीं पर किरदारों ने न हार मानी है... न किरदारों को बनाने वाले ने अभी करुणा त्यागी है...वो गढ़ता है किस्से... वही बिगाड़ता है और फिर वही संवारता है... वो ईश्वर है... वो हमारी लिखी जा चुकी कहानी का कहानीकार है... उसे सब पता है पर वह नहीं करता हस्तक्षेप... किरदारों पर छोड़ देता है सब और खुद होता है बस तमाशबीन या शायद ऐसा तो नहीं कि कर्ता धर्ता वही होता है... किरदार बस अपने होने का भ्रम जीते रह जाते हैं...!***बार बार उन गलियों तक लौट रहा है मन जहां जिए थे कितने ही पल... केन्द्रीय पुस्तकालय बहुत याद आ रहा है... उन सीढ़ियों पर माथा टेक फिर प्रवेश करना भीतर... सुबह से शाम तक किताबों के बीच जाने क्या क्या जीना... तब क्या पता था कि ये दिन बीत जायेंगे...!
आज जब इस दूर देश के अद्भुत पुस्तकालयों में बैठते हैं तो मन में कहीं न कहीं वही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का पुस्तकालय धड़क उठता है और ऐसा लगता है जैसे बस बाहर निकलेंगे तो विश्वनाथ मंदिर भी मिल जाएगा और डिपार्टमेंट भी जैसे पास ही होगा जहां तक सीधा रास्ता जाता था पुस्तकालय से... सेंट्रली लोकेटेड हमारी सेंट्रल लाइब्रेरी आज भी मन प्रांगन में सेंट्रली लोकेटेड ही है! टटोलते रहते हैं पर नहीं मिलते अब वो पल... नहीं मिलेंगे अब वो पल... और वो लोग भी कहाँ मिलेंगे जो उन यादों का ज़रूरी हिस्सा हैं कि हमनें रोज़ एक ही मंदिर में शीश नवाते हुए एक महीन सा रिश्ता जोड़ा था सौहार्द का...
चलो, जीवन है... जो कहीं मिल भी गए वो लोग तो वैसे तो नहीं ही मिलेंगे... वक़्त बेरहमी से छीन जो लेता है मासूमियत और फिर खाई भी तो रचता जाता है समय... जिसे पाटना शायद ही संभव होता है... पर हाँ! कभी जो फिर उन सीढ़ियों पर शीश नवाने पहुंचे तो वो यथावत मिलेगी... इस बात का तो यकीन है और ऐसे ही कुछ विश्वास जीवन हैं...!***चलते हुए... चलते जाना है बस... क्या पता कब गति रुक जाए और जो रुक गयी तो अफ़सोस जताने को हम होंगे कहाँ... तो जब तक हैं... हो लें अपने साथ कि खुद से जुदा होने से बड़ा कष्ट भी है क्या कोई दुनिया में...***थके हारे मन ने जाने क्या क्या टुकड़ा कर लिया है इकठ्ठा और शब्द मूक से देख रहे हैं मन की ओर... और मन है कि कहीं शून्य की ओर टकटकी लगाये हुए है... जाने क्या ढूंढ़ता है... जाने क्या चाहता है...
आज जब इस दूर देश के अद्भुत पुस्तकालयों में बैठते हैं तो मन में कहीं न कहीं वही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का पुस्तकालय धड़क उठता है और ऐसा लगता है जैसे बस बाहर निकलेंगे तो विश्वनाथ मंदिर भी मिल जाएगा और डिपार्टमेंट भी जैसे पास ही होगा जहां तक सीधा रास्ता जाता था पुस्तकालय से... सेंट्रली लोकेटेड हमारी सेंट्रल लाइब्रेरी आज भी मन प्रांगन में सेंट्रली लोकेटेड ही है! टटोलते रहते हैं पर नहीं मिलते अब वो पल... नहीं मिलेंगे अब वो पल... और वो लोग भी कहाँ मिलेंगे जो उन यादों का ज़रूरी हिस्सा हैं कि हमनें रोज़ एक ही मंदिर में शीश नवाते हुए एक महीन सा रिश्ता जोड़ा था सौहार्द का...
चलो, जीवन है... जो कहीं मिल भी गए वो लोग तो वैसे तो नहीं ही मिलेंगे... वक़्त बेरहमी से छीन जो लेता है मासूमियत और फिर खाई भी तो रचता जाता है समय... जिसे पाटना शायद ही संभव होता है... पर हाँ! कभी जो फिर उन सीढ़ियों पर शीश नवाने पहुंचे तो वो यथावत मिलेगी... इस बात का तो यकीन है और ऐसे ही कुछ विश्वास जीवन हैं...!