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Channel: अनुशील
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लड़खड़ाते ही सही... चल पड़ा जीवन!

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समय का दोष नही है
सारा दोष मेरा है...


व्यथित हृदय...
आहत अंतर्मन...
इनकी असह्य पीड़ा
कैसे जीयूं... पर जीना है...!



जाने किस कोने में
छुपी बैठी है मुस्कान...


एक अरसा बीता... मिली नहीं मुझसे
कहाँ से खोज लाऊं उसे
इसी आस में जाने कब तक
सूनी आँखों में... आंसू लिए जीना है...!


धुंधली थी नज़र
चलते हुए पत्थरों से टकराई
आहत हुई...
पर अप्रत्याशित
एक सुखद आश्चर्य से भी
हुआ सामना-

जैसे बड़ी सहजता से
कर जाते हैं न हम इंसान...
उस तरह पत्थर नहीं कर सके
संवेदनाओं की अवमानना...!!

मुझ रोती हुई को एकाकी नहीं छोड़ा...
मन की चोट पर हाथ फेरा
आश्वस्त किया...
और फिर पत्थरों ने कहा---


मन को यूँ मत
भटकने के लिए छोड़ा करो
हृदय थोड़ा कड़ा करो
थोड़ा सिमट जाओ...


मन से यूँ न लगाओ बातें
कि ऐसी अभी तेरे राह में
हैं और कटु सौगातें...



ज़िन्दगी बहुत छ्लेगी...
उसका वही चरित्र है...
हर कदम पर वो आश्चर्य है...
स्वभावतः विचित्र है...


कितना रूठोगी...?
कितना रोओगी...?
खोने की कोई सीमा नहीं है
अरे! अभी बहुत कुछ खोना है... बहुत कुछ खोओगी!  


तो सब मान विधि का लेखा
सीख लो मुस्कुराना...
गिरी न अभी तुम ठोकर खाकर... कोई बात नहीं
सीखो उठना और उठ कर बढ़ जाना...


पत्थरों के बोल सुन
बिखरे हुए एहसास चुन
उठ खड़ा हुआ मन...
लम्बी डगर थी... लड़खड़ाते ही सही... चल पड़ा जीवन!


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