$ 0 0 मुरझाते हुएखिलते हुए...कोहरों मेंमिलते हुए...कोहरे से हीनिकलते हुए...अजानी राहों केराही हम... जुदा डगर परचलते हुए...सपनों की तरहनयनों में पलते हुए...एक अरसे बादमिले हम...दोनों की ही आँखें नम... ये अब हुआ शुरूऔर...और पलक झपकते हीहो गया समापनकहते हैं,है चार दिन का जीवन तो...इस गणित से तोबीत ही चुका है न लम्बा समय,बीत ही चुके हैंआधे हम... अबजो आधे-अधूरे बचे हैंवह न अपरिचय के अँधेरे मेंजाए बीत... हे कविते! हे जीवन!थाम लेने दे अपना दामनकि समय की शिला पर रच जाए कोई सतत सम्भावनाओं का गीत...!