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Channel: अनुशील
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समय की शिला पर...!

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मुरझाते हुए
खिलते हुए...


कोहरों में
मिलते हुए...
कोहरे से ही
निकलते हुए...
अजानी राहों के
राही हम... 



जुदा डगर पर
चलते हुए...
सपनों की तरह
नयनों में पलते हुए...
एक अरसे बाद
मिले हम...



दोनों की ही आँखें नम... 



ये अब हुआ शुरू
और...
और पलक झपकते ही
हो गया समापन
कहते हैं,
है चार दिन का जीवन 



तो...
इस गणित से तो
बीत ही चुका है न
लम्बा समय,
बीत ही चुके हैं
आधे हम... 



अब
जो आधे-अधूरे बचे हैं
वह न अपरिचय के अँधेरे में
जाए बीत... 



हे कविते! हे जीवन!
थाम लेने दे अपना दामन
कि समय की शिला पर
रच जाए कोई
सतत सम्भावनाओं का गीत...! 


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