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Channel: अनुशील
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घर की ओर देखते हुए...!

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एक आंसू...
एक मुस्कान...
दोनों के प्रतिमान
दिख रहे हैं मुझे
आसमान से गिरते
बर्फ के फ़ाहों में...


अपने घर से बहुत बहुत दूर
जहां बैठी हूँ मैं
वहाँ से खुलती हुई खिड़की
मुझे दिखाती है
दृश्य कई कई
रोज़ रंग बदलता है मौसम
रोज़ कोहरे से कोई नया सत्य प्रगट हो आता है
बरसती बूँदें हर बार कुछ नया गा जाती हैं
दूरी का एहसास जगा जाती हैं 


घर--
कहीं क्षितिज पर
टिमटिमाते तारे सा हो जाता है...
दूर इतना
कि पहुँच कर भी
कोई वहाँ कहाँ पहुँच पाता है... 


विदा होता हुआ समय
अपने साथ ले जाता है
हमारा बीता हुआ जीवन
और वे पथ भी नहीं रहते यथावत
जिनसे उस जीवन तक राह जाती थी
उन पर यूँ उग आते हैं
बदली प्राथमिकताओं व विवशताओं के जंगल
कि नहीं रहता कहीं कोई अस्तित्व पथ का...
वो पथ ही नहीं रहे
तो उनपर चलना कैसे होगा...!
यादों की गली में सुरक्षित
हर सुख दुःख जो भी हमने भोगा...! 


इन बर्फ के फ़ाहों को
गिरते हुए देख रही हूँ...
कहीं से विदा हो
कहीं पर आ रहे हैं...
आसमान की देहरी लांघ कर
धरा का आँगन सजा रहे हैं... 


ये भी--
कभी नहीं लौट पायेंगे
अपने पूर्ववत रूप में पुनः अपने घर...
नियति
यही होगी उनकी
धरा पर बिछे हुए निर्निमेष देखेंगे अम्बर...


हम बेटियों की तरह...


विदा होते हुए हम
सब तो पीछे छोड़ आते हैं
फिर हम ही हम कहाँ रह जाते हैं
वो घर वही रहता है उतना ही स्नेहिल
पर हमारे लिए क्षितिज का
टिमटिमाता तारा हो जाता है...!
वो हम तक आ भी जाए
हमारा उसतक पहुंचना कहाँ हो पाता है...! 


कैसे कैसे मोड़ आते हैं न
जीवन की राहों में...


एक आंसू...
एक मुस्कान...
दोनों के प्रतिमान
दिख रहे हैं मुझे
आसमान से गिरते
बर्फ के फ़ाहों में...


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