$ 0 0 ज़िन्दगी नेमुझेअपना कहा...फिर,कुछ यूँ हुआवो मुझसे रूठ गयी...अब हर क्षणगुज़रता है विह्वलतड़पते हुए...सागर, अम्बर औरछू कर गुजरने वाली हवा सेउलझनें कहते हुए...उससेबात नहीं होती...मैं अपने साथ हो कर भीअपने साथ नहीं होती...व्याकुल मन कीबेचैनियां मन के फ़लक से कहीं अधिकविस्तृत हो जाती हैं...अजाने फ़लक की तलाश मेंवही बेचैनियाँफिर अनगढ़ कविताओं काअनछुआ वृत हो जाती हैं...और मैंएक विस्मृत बिंदु-जिसे ज़िन्दगी नेकभी अपना कहा था...!