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Channel: अनुशील
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यही जुड़ाव जीवन है...!

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आकाश से शायद बूँदें गिर रही हैं... क्या पता उसे भी कोई दुःख हो... या फिर ख़ुशी के आंसू रो रहा हो अम्बर... या ये हो कि बस रोने के सुख की खातिर रो रहा हो...!
बहुत अँधेरा है... न आसमान से गिरती बूंदें दिख रहीं हैं, न मेरी आँखों की नमी ही स्पष्ट है... खिड़की से हाथ बाहर निकाल कर बूंदें छू आई... अब मन भी गीला है...!
नयी सुबह का खिल आना बहुत बड़ी बात है... ये इतनी आसानी से कहाँ संभव है... हर रोज़ अपने काल क्रम के अनुरूप आने वाली सुबह नयी भी हो ये आवश्यक थोड़े ही है... कई बार तो वही दोहराव उसे नीरस बनाता है... 'आज'भी 'कल'की तरह ही तो कितनी बार हताश होता है... बस तिथि बदलती है... मन नहीं बदलता... ऐसी स्थितियों में, सुबह यूँ ही नहीं होती... कहीं से कोई मुस्कान जब तक सूरज की किरणों संग दूर क्षितिज से नहीं आती... तब तक नहीं खिलती भोर... 
बूंदों की दस्तक तो है खिड़की की कांच पर लेकिन सुबह कहीं नहीं है... कहाँ खो गयी है सुबह...  कब खोज पायेंगे उसे... यही सोच रहीं हैं नम आँखें...
दिसंबर विदा हो रहा है... २०१३ अपने अंतिम दिनों में जाने क्यूँ और अधिक रुला रहा है... आस बंधती है फिर टूट जाती है...!
बस ऐसे ही, आसमान देख रहे हैं और सोच रहे हैं-- कष्ट में होना उतना कष्टकर नहीं जितना कष्टकर किसी और के कष्ट का कारण होना है... आसमान भी तो उदास होता है, जब नहीं निकलता सूरज... आसमान को लगता है कि धरती वाले उसकी वजह से कष्ट में हैं... अँधेरे में हैं... क्यूंकि सूरज लुप्त हैं कहीं... और इसलिए वह अजाने ही रोता है... बूंदें गिरती हैं धरा पर और धरती आश्वस्त करती है आसमान को कि धैर्य धरे... कोहरे नहीं रहेंगे बहुत समय तक... मौसम बदल जाएगा... सूरज कहीं नहीं गया है... वहीँ है, बस कुछ समय के लिए ओझल है... और यह चिंतित होने का विषय बिलकुल नहीं है!
धरा अपनी तरह से धैर्य धरे हुए वही धैर्य आसमान तक पहुँचाने को उद्धत होती है... क्या पता जिस क्षितिज पर दोनों मिलते हैं वहाँ किसी संवाद की सम्भावना होती भी है या नहीं, पर कुछ है जो धरा गगन को जोड़े हुए है और यही जुड़ाव जीवन है...
ईश्वर हमेशा हमें औरों के लिए खुशियों का कारण बनाये... संबल बने हम अपने अपनों का... कभी ऐसी परिस्थितियां न उत्पन्न हो कि अन्तःस्थिति उस पर विजय न प्राप्त कर पाए... जब भी मन उदास हो... मन में ही हो एक ऐसा कोना जहां हो अप्रतिम प्रकाश और यही संचित प्रकाश सकल संताप हरे... अपना भी, अपने अभिन्न का भी... अपने अपनों का भी...!


रोने के सुख
पर कुछ कह रहा था
अम्बर... 


सुन कर
रो पड़े हम भी... 


आकाश
और
हृदयाकाश की बूंदों का
मेल था सुन्दर... 


सच,
बहुत सुख है
रोने में...
जो हैं हम
वही
होने में...


कोई भेद
नहीं था
एकाकार थे...
कि
आसमान ओढ़े
सपने साकार थे... 


दूरी
नहीं है कोई
वह पास है...
देखो तो-
हम सब के ऊपर
एक ही तो आकाश है... 


विविध भाँती
मन को
समझा लिया...
जो दूर मुंह फेरे खड़ा था
उसे हृदय से
लगा लिया... 


फिर
खुद ही
अपने आंसू पोंछे,
स्वयं को शब्दों में
उलझा लिया...
यूँ जाने कितने ही
मृत्युतुल्य कष्टों को,
हमने पलक झपकते ही
जैसे कुछ पल के लिए
सुलझा लिया... 


शब्द
संबल बन कर
आये...
उन्हें तह लिया
जो कहना था कह लिया
अब कुछ घड़ी मौन हो जाएँ!


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