तुम आये थे...
स्वप्न की तरह...
हँसते मुस्कुराते उपहार लिए...
जीवन की राहों में...
क्षीण संभावनाओं की संकरी गली में...
आकाश सा विस्तार लिए...
सुन्दर पलों को गूंथ कर...
समय को जैसे कुछ पल के लिए थाम लिया हो...
अपरिमित स्नेह का पारावार लिए...
तुम आये थे...
जीवन की तरह...
अनगिनत खिले हुए फूलों के उद्गार लिए...
तुम्हें जाते हुए देख हैं आँखें नम...
आस इतना ही पूछ रही है...
फिर मिलेंगे न हम...?
फिर मिलेंगे न हम...? छूट रहे पलों से एक सहज सा प्रश्न...! फिर मिलेंगे... इसी आस विश्वास के साथ छूट रहे पलों को हम पीछे छोड़ आगे निकल जाते हैं... बीत गया पल फिर भी नहीं बीतता कभी... मन में कुछ लम्हे स्थायी होते हैं... जिन्हें हम पल पल जीते हैं... उनके बीत जाने के बाद भी...!
बहुत ही ख़ास थी इस बार की भारत यात्रा... छोटी बहन का विवाह संपन्न हुआ... कितने ही अपनों से पहली बार मिलना हुआ... कुछ और रुकना था... कुछ और समय होता तो कितना अच्छा होता... पर दौड़ते भागते यात्रा में ही बीत गया वक़्त... अब जब वापस आ गए हैं... फिर भी मन घर पर ही है... यहाँ के काम... छूटी हुई पढ़ाई... मिस हुई क्लासेज... ये सभी चिंताएं मन को वापस खींच कर लाने का भरसक प्रयास कर रही है...! देखें कितनी सफलता मिलती है... कब तक व्यवस्थित होते हैं हम!स्वप्न की तरह बीत गया ये पंद्रह दिनों का वक़्त और इस स्वप्न की तरह बीते समय को सहेजते हुए समेट लें हम खुद को भी... कि खुद को छोड़ आये हैं हम वहीँ... अपने अपनों के पास...!
बहुत ही ख़ास थी इस बार की भारत यात्रा... छोटी बहन का विवाह संपन्न हुआ... कितने ही अपनों से पहली बार मिलना हुआ... कुछ और रुकना था... कुछ और समय होता तो कितना अच्छा होता... पर दौड़ते भागते यात्रा में ही बीत गया वक़्त... अब जब वापस आ गए हैं... फिर भी मन घर पर ही है... यहाँ के काम... छूटी हुई पढ़ाई... मिस हुई क्लासेज... ये सभी चिंताएं मन को वापस खींच कर लाने का भरसक प्रयास कर रही है...! देखें कितनी सफलता मिलती है... कब तक व्यवस्थित होते हैं हम!