उदासी के कितने ही रंग... सब एक साथ मुझे मिल गए...! उन रंगों में जाने क्या था ऐसा...? मन के अनगिन तह छिल गए...!!
अब रिसता दर्द हा! अपनी ओर से ध्यान हटने ही नहीं देता... देख पाती तो शायद दिखती कहीं दुबकी हुई ख़ुशी भी मगर जीवन है कि आंसुओं को सिमटने ही नहीं देता...
इन बूंदों से हो कर ही शायद इन्द्रधनुषी रंगों को बिखरना है... इन राहों में कितनी ही बार है टूटना और फिर उतनी ही बार निखरना है...
ये विरले तथ्य भरी हुई आँखों को जाने कौन बता जाता है...? जब रोता है रोम रोम मौन अपनी उपस्थिति चुपचाप जता जाता है...!
उस शून्य में धरा-आकाश उग आते हैं अवचेतन में... कभी-कभी होता है घटित ये संयोग जीवन में...
धरा-आकाश साथ साथ रोते हैं... न होकर भी साथ दोनों साथ होते हैं...
शायद आंसू बहुत कुछ जोड़ देता है... संभवतः दूरियों का भरम तोड़ देता है...
अब जब मैं आकाश देख रही हूँ... तो- अपने आंसू भूल चुकी हूँ...!
उदासी का रंग वहाँ कहीं अधिक काला है... अरे! मेरे पास तो फिर भी बहुत उजाला है...!
ये मोमबत्ती जो जल रही है... लम्हा-लम्हा पिघल रही है...
फिर भी दर्द से बेपरवाह है... उसके कष्ट की कहाँ किसी को थाह है...
मेरा हर कष्ट उसके दर्द के समक्ष कितना कम है...! पहले अपने कष्ट से रो रही थी मैं अब इस बात से मेरी आँख नम है...!! सच! मेरा दर्द उसकी तुलना में कितना कम है...!
ईश्वर! तेरी लीला कैसी विहंगम है...! विराट दुःख की रागिनी से पल पल तरंगित प्रकृति तमाम विरोधाभासों के बावजूद सुन्दरतम है...!!!