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Channel: अनुशील
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एकाकी शाम...!

चाँद चलता रहा साथ... कहने लगा... रात नहीं दिखा था न, तो लो दूर कर दी शिकायत तुम्हारी... दिख गया न दिन में... चलो रास्ते भर तुम्हारे साथ चलता हूँ... फिर मैं अपनी राह ले लूँगा... अदृश्य हो जाऊंगा पुनः...

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अकारण...!

खुद से ही नाराज़बहुत बहुत बहुत नाराज़ होफफ़क फफ़क कर रोते हुएमन प्राण सब भिगोते हुएहम लिखते रहे शब्द... खोखले शब्दबेजान शब्दबेवजह बेमतलब शब्द और बहते रहे आंसूचीख कर नहीं रोये कितने दिनों सेअभी चीख रहे...

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हम कौन हैं?

कहने को कितना कुछ हैइसीलिएमौन हैं...परिभाषित करते रहे हैं हम कितना कुछऔर ये ही नहीं जानते किहम कौन हैं?ये कैसी विडम्बना हैअपनी ही पहचान नहीं हैजी रहे हैं बस ऐसे हीशरीर में कोई जान नहीं है क्या...

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साझी व्यथा...!

अपरिचय... परिचय... अपरिचयमृत्यु... जीवन... मृत्यु यही कथा है...इतनी ही व्यथा है! जीवन का चक्रअपरिचय के दौर सेपरिचय की सीमा पररखता है कदम... अपने हो जाते हैं सपनेऔर फिर देखते ही देखते सपना हो जाता...

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आँख का पानी...!

रोते हुए...सिसकते हुए...जाने क्या क्या कहे जा रहे थे आंसू...उन पर कभी नहीं रहा है मेरा वशउन्हें जब बहना है बहेंगे हीजो कहना है कहेंगे ही... फिर भी,जितना... जो जैसाकहा-अनकहाछुआ-अनछुआदर्द है हृदय मेंकहाँ...

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नमी कहेगी...!

कोई किसी की व्यथानहीं कर सकता कम,नहीं बाँट सकताकोई किसी का गम...निज व्यथा निज ही को सहना है,कभी नहीं मुख से कुछ कहना है... हाँ, मिले जो कोई साथ रोनेवालालगे कि कुछ अघटित है होनेवालातो होने देना...जो...

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एक और शीर्षकविहीन रचना...!

डायरीसे कई दिनों से यहाँ उतार रहे हैं इसे... आज पूरी लिख पाए... ये ९८ में लिखी गयी थी कभी, तब हम एलेवेनथ में थे... और बेवजह लम्बी इस कविता को शायद ही किसी को सुनाया है... न ही पढ़ा है किसी ने......

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संदेशे धरती के नाम!

कभी कभी...सारा दिनएक सा ही होता है घिर आने वाली शाम की तरह हीउदास...! बादलों से पटासमूचा अम्बर...सूरज का कहीं कोईअता पता नहीं...एक अजीब से अँधेरे में घिरी सुबह जाने कैसी तो सुबह...!सुबह का नहीं कोई...

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हमने तुम्हें चुन लिया...!

रात भरजलता रहादिया...जीवन का होनाव्यर्थ नहीं गया...हम देखते रहेटिमटिमाती लौएकटक,जागी आँखों नेजागे जागेसपना बुन लिया... आँखों ने हृदय काजाने कौन सा भावपढ़ लिया...अश्रूकणों का एक पारावारहवा में तैर...

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इस बार वह कह पायी...!

एक उदास सा दिनऔर एक उदासी भरी शाम...जब हम समेट रहे थे,एक एक शब्द याद हो आयेजो तुमने कहे थे... कितनी हीआस विश्वास की बातें...हमें रुला रही थी,जाने कैसी एक आवाज़ थीजैसे हमें बुला रही थी... हम ठोकर खाते...

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विस्मित हम!

कैसे जुड़ जाते हैं न मन!कोई रिश्ता नहीं...न कोई दृष्ट-अदृष्ट बंधन...फिर भी तुम हमारे अपने,और तुम्हारे अपने हम...भावों का बादल सघनबन कर बारिश,कर जाता है नम...उमड़ते-घुमड़ते कुछ पल के लिएउलझन जाती है...

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इंतज़ार...!

एक प्रिय मित्र ने हमसे कहा था कभीइंतज़ार से अच्छी और बुरी चीज़कोई नहीं...तब से हमजी रहे हैं हर वो अच्छी चीज़ जो निहित है इंतज़ार में,और हर वो बुरी चीज़ भीहमको तार तार किये हुए हैजो इंतज़ार की घड़ियों का सच...

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तुम बेतरह रुलाते हो...!

दिसंबर हमेशा ही उदास होता है... जाने क्यूँ विदा होते हुए उसकी आँखें भी नम हो ही जाती हैं... भले ही वह निर्मम निष्ठुर समय की इकाई है... समय है...!सभी माह एक के बाद एक आते जाते रहते हैं... उनमें एक...

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मेरा पूरा आसमान...!

यूँ होता है कितनी ही बारकि कहीं भी हो मनआत्मा घुटनों पर बैठीरहती है प्रार्थनारत...ऐसा ही कोई क्षण था...जैसा रहता हैवैसे ही अनमना सा मन था... उम्मीदें उदास थीं...फिर भीआस की कोई किरण पास थी...कि...

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हाँ, अब शायद कह पाओगे... कहो...!

बंधन वही श्रेष्ठजो बांधे न...!अब रिश्ता तो वही दृढ़ हुआ नजहां कोई संकोच नहींकोई बंदिश नहीं...जो दे खुला आसमान,बाहों में सिमटा हुआ जहान... बेड़ियों में जकड़ा हुआ समुदायसब बंधे हुए... सब बंधन के पर्यायजीवन...

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प्रतिभा, तुम्हारी प्रेरणा से... तुम्हारे लिए!

प्रतिभा... मेरी प्रिय दोस्त... मेरी रूम मेट... उन दिनों की दोस्त जब हम रोते हुए बनारस आये थे और साल भर रोते ही रहे, घर लौट जाने की जिद लिए...! तब हमें झेलने वाली... समझाने वाली... सँभालने वाली......

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कह उठा जीवन...!

हर सुबह नयी होती है... हर सुबह उदास भी होती है... कुछ तो छूट गया होता है न पीछे हर नयी सुबह से... हाँ, ये सोच समझ हम बहला लेते हैं मन कि नयी सुबह कुछ नए एहसास ले कर आएगी... जो छूट गया है उसे या उससे...

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तुम तक...!

आवाज़ दे रहे हैं हमपर खामोश है गगनजाने क्या कारण है...दूरी बहुत है...?या बीच में है शून्य...?जिससे हो करनहीं गुजरती कोई आवाज़... नहीं पहुँचते मेरे स्वर वहाँ तक...?या अनसुनी कर दी जाती है पुकार...?क्या...

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कविता के पास...!

मेरे आसपासनहीं होता कोईजो सुनेमेरी बातें...समझे मेरी उलझनें...मेरे डर को पुरुषार्थ में बदल दे...ऐसी कोई सम्भावना नहीं नज़र आतीजो आश्वस्त करे हँसते गाते पल दे... जाने क्या दोहराती हैआती जाती सांस...निराश...

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यूँ ही...!

उदास हैंसोच रहे हैंयूँ ही...क्या केवल हमको हीफ़िक्र लगी रहती है...?सब तक पहुँचने की...या कोई ऐसा भी है...?जिसे मेरी फ़िक्र होजो मेरा हाल जानना चाहे...??लगता है-अपने आप कोरख कर कहींभूल जायें...खो...

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