कहने को कितना कुछ है
इसीलिए
मौन हैं...
परिभाषित करते रहे हैं हम कितना कुछ
और ये ही नहीं जानते कि
हम कौन हैं?
ये कैसी विडम्बना है
अपनी ही पहचान नहीं है
जी रहे हैं बस ऐसे ही
शरीर में कोई जान नहीं है
क्या कहें...
क्या न कहें?
ये दुविधा जब आन पड़ी,
तो समाधान बन कर खिल गया वो-
कुछ न कहो कि ऐसा कुछ है ही नहीं
जिसका मुझको भान नहीं है...!
रिश्ते सच्चे होते हैं तो
घिरे हुए तम में भी
रौशनी बन रह लेते हैं,
चाहे जितनी भी विडम्बनाएं घेर लें
आपस में
सारे गम कह लेते हैं...!
यात्रा अंतहीन है
और डगर आसान नहीं है
चलता हुआ पथिक कुछ आश्वस्त है आज
शायद राह आज कल जैसी सुनसान नहीं है
और पुनः पुनः उस सनातन प्रश्न का
उत्तर होने को चीखता हुआ मन
मौन है...
परिभाषित करते रहे हैं हम कितना कुछ
और ये ही नहीं जानते कि
हम कौन हैं?