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Channel: अनुशील
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एकाकी शाम...!

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चाँद चलता रहा साथ... कहने लगा... रात नहीं दिखा था न, तो लो दूर कर दी शिकायत तुम्हारी... दिख गया न दिन में... चलो रास्ते भर तुम्हारे साथ चलता हूँ... फिर मैं अपनी राह ले लूँगा... अदृश्य हो जाऊंगा पुनः रात्रि में प्रगट होने को... देखो नाव जैसी आकृति है न आज मेरी... आओ ले चलता हूँ पार... सभी उलझनों से पार...
सुबह सूर्य तो न थे पर साफ़ से आसमान पर चाँद था चिपका हुआ... नाव की आकृति में एकदम स्पष्ट धवल अप्रतिम... उसको देखते हुए चल रहे थे और सामने से बस छूटती हुई प्रतीत हो रही थी कि दौड़ लगा दी... ठोकर लगी, गिर पड़े... फिर उठे और दौड़ गए... बस छूटने नहीं दिया... स्टेशन पहुँच कर देखा... चाँद अब भी साथ था... तो ट्रेन की राह देखते हुए वह भी साथ ही रहा मेरे और चलती ट्रेन के साथ भी चलता ही रहा... मंजिल आई फिर चलते हुए उसे ही देखते रहे और अब यूनिवर्सिटी गेट पर उसे अलविदा कह दिया... हमने नहीं... उसी ने पहले कहा... अब रौशनी हो रही थी कुछ... और उसे दूसरी राह पकड़नी थी...!
आज प्रेजेंटेशन था... हमको अभी कई परीक्षाओं से गुज़रना था दिन भर में ... और कई आगत परीक्षाओं की तिथि और समय से भी तो परिचित होना था... कि जरा तैयारी हो सके आगे के लिए...!
जीवन के इम्तहान तो ऐसे भी अचानक बिन पूर्व तैयारी के ही फेस करने होते हैं... कहाँ समय देता है यह सहूलियत कि जीवन में होने वाले इम्तहान का एक निर्धारित समय हो, प्रश्नपत्र हल किये जाने के तरीके पहले से प्रैक्टिस किये गए हों... यहाँ तो सब अचानक होता है... समय और नियति की ही चलती है... हमारे हाथ केवल अपना सर्वश्रेष्ठ देना ही तो होता है... सामना करने के सिवा और कोई विकल्प छोड़ती ही नहीं ज़िन्दगी...!!!
शाम ढले जब यूँ सुबह के चाँद को याद कर रहे हैं तो बाहर एक बार खिड़की से झाँक कर ये भी सुनिश्चित कर ले रहे हैं कि अन्धकार में है क्या कहीं कोई चाँद सितारे फ़लक पर या आज भी वे छुट्टी पर हैं...

नीरवता है,
अँधेरा है...
और है एकाकीपन

घर से बहुत बहुत दूर
ये एक ऐसी शाम है
जहां है बस यादों का मौसम

किससे करें बातें
किसके पास होगा हमसे बात करने का अवकाश अभी
यही सोच सोच यहाँ वहाँ विचर रहा है मन

फिर लौट कर आया जो
तो जाने क्या बात कही मन ने
आँखें हो गयीं नम

मौन रहा मुखर
बात करती रही कविता
बैठे रहे अपने साथ हम... !!




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