बहुत अँधेरी है रात... आसमान में एक भी तारा नहीं... चाँद भी नहीं... हो भी तो मेरी धुंधली नज़रों को नहीं दिख रहा... बादल हैं इसलिए नीला अम्बर भी कहीं नहीं है...! दिन भर नहीं रहा उजाला तो रात तो फिर रात ही है... अभी कहाँ से होगी रौशनी...वैसे भी मौसम ही अंधेरों का हैं... सर्दियाँ आ गयीं हैं न... यहाँ सर्दियों में नहीं होती कुछ ख़ास रौशनी... होती भी है तो जैसे छलती हुई प्रतीत होती है... कभी जो उग आये दिनमान तो उग आये नहीं तो घड़ी ही बताती है कि कब हुई सुबह और फिर घड़ी ही बताती है कि कब शाम आई...!शाम होने को थी आज... मन उदास था... कहीं जाना था उसे... सो बस निकल गए हम यूँ ही... बिना किसी उद्देश्य के... कहीं पहुंचना नहीं था... कहीं पहुंचे भी नहीं... पर भटकना भी तो राहों की पहचान देता है... सो भटकते रहे... साथ था रास्ता इसलिए चलना नहीं खला और फिर राह ही तो मंजिल होती है कई बार!
शून्य से नीचे ही रहा होगा कुछ टेम्परेचर... अच्छा लग रहा था चलना... कोई जल्दी जो नहीं थी... कहीं पहुंचना जो नहीं था...! हवा में ठंडक होनी ही थी... थी ठंडक, पर अच्छा लग रहा था जब ठंडी हवा छूती थी... मानों कुछ कह रही हो हमसे... जो जो कहा हवा ने सब सुना हमने... और हवा से ही कहा कि हमें भी ले चले अपने संग कहीं दूर जहां ज़िन्दगी अपने सरलतम रूप में स्वयं विद्यमान हो...! हवा क्या करती... हंसती हुई बढ़ गयी... बढ़ने से पहले कहा:: जहां हो वहीँ रहो और जो क्लिष्ट कर रखा है न... करो उसे सरल... सहज... सफल... ज़िन्दगी अपने सरलतम रूप में तुम्हारे पास ही है, तुमने ही कर रखा है उसे जटिल...!चलते हुए बहुत दूर निकल आये थे... यात्रा में होना अच्छा है पर घर लौटना ज्यादा अच्छा है... यही सोच कर अब वापसी की ट्रेन में बैठ गए थे... अब पूरा अँधेरा हो चुका था... शाम हो चुकी थी समय के हिसाब से और अँधेरा कह रहा था कि रात घिर आई है...
बहुत से अधूरे काम है... घर बिखरा हुआ है मन की ही तरह... जाने कब समेटेंगे... आने वाले मंगलवार की परीक्षा हो जाए तब शायद... या फिर बुधवार को असाईनमेंट सबमिट करने के बाद... क्या पता...? शायद समेट भी लें, पर क्या फायदा... फिर तो बिखर ही जाएगा न...!
काश...
हमारे अनुरूप ही चलती ज़िन्दगी
काश...
हम चाहते
और बदल जाता मौसम
काश...
कोई होता
हर क्षण पास
आंसू चुनने को...जब कभी होती आँखें नम
काश...
हम चुन पाते
अपने अनन्य की आँखों का दर्दतो बिन लेते एक एक कण मेरी विनती सुन दे देते हमें वो अपने सारे गम
काश...
ज़िन्दगी सरल होती यूँ न गरल होती
काश...
ओह! कितने सारे काश...
इससे मिलेगी क्या कभी मुक्ति...?
जीवन हो गया जाने क्या क्या बिसर गयी भक्ति...?
काश...
प्रश्न चिन्हों को मिलता विराम
मन कुछ क्षण तो करता फिर विश्राम
काश...
काश! मिलता कभी अवकाश...!
काश क्षितिज पर सचमुच मिलते धरती और आकाश...!!!
शून्य से नीचे ही रहा होगा कुछ टेम्परेचर... अच्छा लग रहा था चलना... कोई जल्दी जो नहीं थी... कहीं पहुंचना जो नहीं था...! हवा में ठंडक होनी ही थी... थी ठंडक, पर अच्छा लग रहा था जब ठंडी हवा छूती थी... मानों कुछ कह रही हो हमसे... जो जो कहा हवा ने सब सुना हमने... और हवा से ही कहा कि हमें भी ले चले अपने संग कहीं दूर जहां ज़िन्दगी अपने सरलतम रूप में स्वयं विद्यमान हो...! हवा क्या करती... हंसती हुई बढ़ गयी... बढ़ने से पहले कहा:: जहां हो वहीँ रहो और जो क्लिष्ट कर रखा है न... करो उसे सरल... सहज... सफल... ज़िन्दगी अपने सरलतम रूप में तुम्हारे पास ही है, तुमने ही कर रखा है उसे जटिल...!
बहुत से अधूरे काम है... घर बिखरा हुआ है मन की ही तरह... जाने कब समेटेंगे... आने वाले मंगलवार की परीक्षा हो जाए तब शायद... या फिर बुधवार को असाईनमेंट सबमिट करने के बाद... क्या पता...? शायद समेट भी लें, पर क्या फायदा... फिर तो बिखर ही जाएगा न...!
काश...
हमारे अनुरूप ही
काश...
हम चाहते
और
काश...
कोई होता
हर क्षण पास
आंसू चुनने को...
काश...
हम चुन पाते
अपने अनन्य की आँखों का दर्द
काश...
ज़िन्दगी सरल होती
ओह! कितने सारे काश...
इससे मिलेगी क्या कभी मुक्ति...?
जीवन हो गया जाने क्या क्या बिसर गयी भक्ति...?
काश...
प्रश्न चिन्हों को मिलता विराम
मन कुछ क्षण तो करता फिर विश्राम
काश! मिलता कभी अवकाश...!
काश क्षितिज पर सचमुच मिलते धरती और आकाश...!!!