कहने को कितना कुछ है, और नहीं है कुछ भी
कि बिन कहे ही हो जानी हैं
सब बातें संप्रेषित
हम नहीं समझ पाते कभी
उन अदृश्य तारों को
जो जोड़ता है हमें...
अनचीन्हे ही रह जाते हैं
स्नेहिल धागे
जो बांधते हैं हमें...
हम ये नहीं सोच पाते कई बार
कि जिस एक ही चाँद को
निर्निमेष निहार रहे हैं हम
वह सम्प्रेषण का सदियों से अद्भुत माध्यम रहा है
एक मन का विम्ब दूसरे में बो आता है
तेरा मेरा सदियों का नाता है... ... ...
सूरज से रौशनी लेकर चाँद जगमगाता है
धरती की खातिर दोनों का उद्देश्य एक हो जाता है
जीवन के बीज सकल
धरती पर लहलहाये
चाँद सूरज इसी दुआ संग
सदियों से उगते आये
उनको युगों युगों से उगना और डूबना भाता है
ये कोई आज कल की बात नहीं... सदियों का ये नाता है...!!