$ 0 0 मेरे आसपासनहीं होता कोईजो सुनेमेरी बातें...समझे मेरी उलझनें...मेरे डर को पुरुषार्थ में बदल दे...ऐसी कोई सम्भावना नहीं नज़र आतीजो आश्वस्त करे हँसते गाते पल दे... जाने क्या दोहराती हैआती जाती सांस...निराश हताश मन सेछिन जाता है धरती और आकाश...ऐसे में मैंलिखती हूँ शब्दशब्दों में तराशती हूँ अर्थऔर फिर कोई रंग लेकर इन्द्रधनुष सेरंग देती हूँ स्याह से मंज़र अँधेरा बढ़ता ही रहता है लिए हाथ में खंजर तब शब्दों में पिरो कर खुद कोराह बनाती हूँ...नहीं पहुँच पाती तुम तकशब्द सेतु निर्मित करती जाती हूँ...ये सेतु तुमसे मुझको जोड़ेंगेयही हमारा मौन तोड़ेंगे बनी रहेये आस...भले न हो समाधान कोईपर जिलाए जाने की संजीवनीतो है ही न कविता के पास...!!