कैसे जुड़ जाते हैं न मन!
कोई रिश्ता नहीं...
न कोई दृष्ट-अदृष्ट बंधन...
फिर भी
तुम हमारे अपने,
और तुम्हारे अपने हम...
भावों का बादल सघन
बन कर बारिश,
कर जाता है नम...
उमड़ते-घुमड़ते
कुछ पल के लिए
उलझन जाती है थम...
जुदा राहों पर चलने वाले राहियों का
जुदा जुदा होना,
है मात्र एक भरम...
एक ही तो हैं,
आखिर एक ही परमात्म तत्व
समाहित किये है तेरा मेरा जीवन...
भावातिरेक में
कह जाते हैं...
जाने क्या क्या हम...
सोच सोच विस्मित है,
अपरिचय का तम....
कैसे जुड़ जाते हैं न मन!
कितना लिखना है,
कितना लिख गयी...
और जाने
क्या क्या लिखेगी...
ज़िन्दगी! तुम्हारी ही तो है न
ये कलम...!!!