अब रिश्ता तो वही दृढ़ हुआ न जहां कोई संकोच नहीं कोई बंदिश नहीं... जो दे खुला आसमान, बाहों में सिमटा हुआ जहान...
बेड़ियों में जकड़ा हुआ समुदाय सब बंधे हुए... सब बंधन के पर्याय जीवन से व्यथित... क्लांत... चंचल मन न कभी शांत... ऐसे में जो परम आनंद पाना हो तो अंदाज़ जरा जुदा हो मनमाना हो
कुछ कुछ पंछियों सा...
कोई नहीं बांधता उन्हें उड़ने को... समूचा आसमान है... फिर भी, शाम ढले... ये धरती का प्यार ही है न... जो खींच लाता है उन्हें वापस अपने घोंसले में!
धरा नहीं बांधती उन्हें इसलिए वो छूट नहीं पाते हैं... उड़ते हैं और पुनः अपनी धरा के पास ही लौट आते हैं...
नदिया यूँ बहती है मानों वो निर्मोही है निर्विकार है धरा से पर उसे भी बहुत प्यार है... भले कुछ समय के लिए गगन का बादल हो जाती है पर बरस कर पुनः नदिया ही हो जाती है धरा से अपना स्नेह बंधन खूब निभाती है...
रिश्ते यूँ होते हैं... रिश्ते यूँ ही होने चाहिए सहज सुन्दर जीवन के उत्प्रेरक... प्रकृति से बहुत कुछ सीखना है हमें हम हैं मात्र उसके संरक्षक और सेवक...
सेवा भाव प्रबल हो, प्रकृति बहुत कुछ सिखाएगी... हाथ पकड़ कर चलना सीखाया है उसने, आज भी वही सिखाएगी-
चलना भी... संभलना भी... जीना भी... खुश रहना भी... निभाना भी... और सच्चे अर्थों में पाना भी...
और वह ही दिखाएगी... परमलक्ष्य की प्राप्ति की राह भी, रौशनी का गीत भी वही... वही है रात स्याह भी...!
मित्र! बस महसूस करो ये तथ्य और मेरा हाथ थामे रहो... कुछ कहना था न तुम्हें...? हाँ, अब शायद कह पाओगे... कहो...!
जिंदगी जैसे बहती है अपनी रौ में... वैसे ही उन्मुक्त बहो...!!!