हर सुबह नयी होती है... हर सुबह उदास भी होती है... कुछ तो छूट गया होता है न पीछे हर नयी सुबह से... हाँ, ये सोच समझ हम बहला लेते हैं मन कि नयी सुबह कुछ नए एहसास ले कर आएगी... जो छूट गया है उसे या उससे कहीं अधिक दे कर जायेगी नयी सुबह... आस विश्वास का दामन थामे रहते हैं हम और जीवन इस तरह सुबह शाम के क्रम को जीता हुआ गुजरता ही चला जाता है... ख़ुशी और उदासी के चोले पहनते उतारते मन तार तार हो जाता है, पर जीवन तो जीए जाने का नाम है और आस का दामन थामे हम अंतिम सांस तक चलते ही तो चले जाते हैं...
आज की सुबह उदास थी... कि मेरे गमले का पौधा मुरझा चुका था... पूरी तरह... मरणासन्न था... अब तो पूरा मृत ही था... फूल तो कबके साथ छोड़ गए थे डालियों का, बस इसी आस में जिए जा रहा था पौधा कि जो कुछ एक कलियाँ है वो खिल जाएँ... पर कलियाँ भी एक एक कर मृत्यु को प्राप्त होती गयीं... फूल फिर खिले ही नहीं... और अब देख रहे हैं कि सभी डालियाँ मुरझायीं हुई हैं... पौधा मर चुका है...
स्कूल के पाठ्य पुस्तक में पढ़ी एक कहानी याद आती है... बस धुंधला सा ही याद है... कहानी का शीर्षक था रक्षा में हत्या... कहानी में दो बच्चे थे जिनके घर में चिड़िया ने घोंसले बनाये... जब अंडे दिखे तो बच्चों ने बड़े जतन से अण्डों को ठण्ड से बचाने के लिए कुछ इंतजाम किये... उसी उपक्रम में अंडे टूट गए... और जो नहीं होना चाहिए था वही अनहोनी हो गयी...! बच्चों की मंशा सही थी पर अनजान थे वो इस बात से कि उनके इस प्रयास की आवश्यकता ही नहीं थी... प्रकृति ने स्वमेव ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि उन अण्डों की रक्षा हो जाती ठण्ड से... चिडिया रख लेती ख्याल... कोई सहायता अपेक्षित ही नहीं थी...! किसका दोष है... अज्ञानता का ही न... भाव तो पावन ही थे पर अनिष्ट कर गए न...
ऐसा ही कुछ मेरे पौधे के साथ भी हुआ... जल की अधिकता के कारण गल गया पौधा... नष्ट हो गया... ये जानते थे हम कि इन्हें ज्यादा जल नहीं चाहिए फिर भी जाने क्यूँ, ज्यादा पानी न डालने की सुशील जी की हिदायत के बावजूद, दो तीन दिनों के अंतराल पर पानी दे दिया पौधे को और यही स्नेह ले डूबा कलियों को... टहनियों को... और पौधे को भी! होना ही था, ठण्ड है ही, सूर्य देवता का कहीं कोई पता नहीं... कैसे खिले फूल... कैसे खिले मन...!