डायरीसे कई दिनों से यहाँ उतार रहे हैं इसे... आज पूरी लिख पाए... ये ९८ में लिखी गयी थी कभी, तब हम एलेवेनथ में थे... और बेवजह लम्बी इस कविता को शायद ही किसी को सुनाया है... न ही पढ़ा है किसी ने... तुम्हारे अलावा, प्रिय श्वेता... याद होगी शायद तुम्हें धुंधली सी...?कितना वक़्त निकल गया न इस बीच... कहाँ खो गए न वो दिन... अब तो तुमसे बात हुए भी कितना समय हो गया... कहो व्यस्तता को कि थोड़ा अवकाश दे तुम्हें कि तुम बाँट सको हमसे अपनी कवितायेँ...समय बीत जाता है, रह जाती हैं यादें... रह जाती हैं बातें... और उस समय को सचित्र आँखों के सामने पुनः ले आने के लिए आभार... हे, शीर्षकविहीन रचना...!
बार बार निराश हुआ
किसी तलाश में भटकता मन
कई बार हताश हुआ
तलाश जारी है...
जहां से चले थे स्थिति अब भी वहीँ है
क्या सचमुच कोई भी नहीं है...?
मेला सजा है
पर ऐसी न कोई सखी न सखा है
जो समझे मेरी भाषा
हो जिसके नयनों में अप्रतिम आशा
उलझे मेरे विचारों से
मगर परस्पर प्रेम एवं आदर का सम्बन्ध हो
विचारों की स्वतंत्रता जिसमें निर्द्वंद हो
अपनी तमाम दुर्बलताओं के बावजूद
जिसे प्रिय होते हम... काश!
कोई होता ऐसा
जो नहीं करता मुझमें सम्पूर्णता की तलाश
आँखों में सपने सजाये
मुझे यहाँ से दूर ऐसी दुनिया में ले जाता
जहां प्यार अपनापन श्रद्धा विश्वास का
मजमा न लगता हो
लोग मुखौटों के पीछे न रखते हों
जहां प्रेम पगी बोली जाती हो भाषा
आत्मा से आत्मा का सम्बन्ध ही जहां प्रेम की परिभाषा
सच मुझे आज तक वह नहीं मिला
हृदय का सुमन अब तक नहीं खिला
कली फूल बनते बनते मुरझा गयी
जिसकी तलाश तुझे है
ऐसा कोई है ही नहीं... समझा गयी!
कभी न कभी सबने आघात किया
संवेदनाओं पर बार बार वज्रपात हुआ
आज तक नहीं मिला मुझे वह प्यारा साथी
जिसे हो मेरी अटपटी भाषा आती
लेकिन कोई है... जो भीड़ से अलग है
कम से कम वह मेरे लिए सजग है
तलाश को भले विराम नहीं मिला
पर, इस बार सचमुच हृदय में सुमन खिला
चलो एक पडाव तो हासिल हुआ
धूप में भटकते राही को
छांव ने कुछ देर के लिए ही सही छुआ
वह मिल गया
गति रुक गयी कुछ पल के लिए तलाश थम गया
मुझे वह प्रिय नितांत है
कुछ और नहीं... वो "एकांत"है
वह निरुपम कब व्याख्येय है
मेरे लिए वह श्रद्धेय है
वह मुझे बहुत आगे तक ले जाता है
कल्पना के लोक से
शाश्वत स्वप्नों से थाल सजा लाता है
भावनाएं पंख लगा कर उड़तीं है
कई ओर विचारधारा स्वयं मुडती है
वह मुझे मेरे पास ले आता है
मेरे व्यक्तित्व के रचनात्मक पहलू को
रेखांकित कर जाता है
आँखों को सपने देकर
नयी संभावनाएं जगाता है
नित बढ़ते ही रहने की बात
समझाता है
तभी तो उसकी बात मान कर
उसके ही सिद्धांतों को सच जान कर
मैं आगे बढती हूँ...
नए आयाम ढूढती हूँ...
उसका प्रेम
नहीं बांधता है मुझको
हर बार वह यही है कहता...
स्वतंत्र आसमान में विचरना है तुझको
पंछी की भांति...
एकांत मेरा प्रिय साथी है
मौन से मैंने दोस्ती गांठी है
लम्बी यात्रा की राह पर हूँ
बस एक मौन कराह भर हूँ
साथ होने की सबको मनाही है...
एकांत मेरा हमराही है...!
उसका दामन थाम कर
निकल पड़ती हूँ अपनी ही खोज पर
अजीब है न बात...
कितना रहस्यमय यह साथ!
मुझे अपने साथ ले आता है
वह उस किनार पर
जिससे बहुत आगे जाने पर ही
पहुंचूं मैं अपनी आत्मा के द्वार पर
मेरे साथ मेरे स्वार्थ के लिए
मुझे सहारा दिए
चलता है वह साथ
अपने हाथों में लिए मेरा हाथ...
एकांत मेरा प्रिय साथी है
मौन से मैंने दोस्ती गांठी है
मेरी भाषा जानता है वह
मुझे भली तरह पहचानता है वह
कई बार मेरी बातों को मानता है
कई बार विरोध में मोर्चा भी ठानता है
परन्तु... अंत सदैव मधुर होता है...
उसके मुख पर
हर तनावपूर्ण क्षण के बाद
स्मित हास्य मुखर होता है!
मुझे विचार के सीमित दायरे से कर विमुक्त
उसका विरोध विस्तार देता है सशक्त
उसकी मूक आलोचना मुझे मेरे पास ले आती है
मेरे विचारों को परिपक्व बनाती है
उससे अलग होते हुए
वेदना नयन भिगोती है
बिछोह की यंत्रणा
हृदय कुञ्ज में संजोती है
मेरा हृदय भर भर आता है...
वह कभी अपनी महत्ता नहीं जताता है!
एकांत मेरा प्रिय साथी है
मौन से मैंने दोस्ती गांठी है
जब उससे दूर होती हूँ
तो अपना आप ही खोया होता है
स्वयं से दूर
एक वेदना से रहती हूँ चूर
एक शून्य का आभास होता है
ख़ामोशी शोर हो जाती है... मन अनायास रोता है
याद आती है
उसकी मधुर स्मृति विचलित कर जाती है
पर विषाद को पीछे छोड़ कर
बंधन सारे तोड़ कर
मैं आगे बढती हूँ
निरंतर संघर्ष करती हूँ...
क्यूंकि ये उसी के विचार हैं
उसी के हृदय के उत्कट उदगार हैं
कि प्रेम शक्ति है
प्रेम कोई साधारण भाव न होकर स्वमेव भक्ति है
विचलित जो होने लगे मन
पाँव जो डगमगाने लगें
तो....
किया था उसने मुझे कई बार आगाह-
समझ लेना अनुभूत प्रेम था मात्र एक प्रवाह
सच्चा प्यार नहीं... सच्चा साथ नहीं...
स्वार्थरहित वह आकाश नहीं
जिसके नीचे हम मिले थे
तुम्हारे इन्द्रधनुषी सपने आकाशकुसुम बन खिले थे...!
दोस्ती... प्रेम... साथ... की
इतनी सुन्दर व्याख्या
सच, मेरे प्रिय एकांत!
मौन को नहीं था कभी मैंने
इतना मुखर पाया...
इसलिए तो हे एकांत! हे एकाकीपन! तू मेरा साथी है
तुम्हारी अनकही भाषा मौन से मैंने दोस्ती गांठी है...!!
२४/३/९८