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Channel: अनुशील
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मौन में, आवाज़ थी... !!

कोरा था कागज़...मौन में, आवाज़ थी...खाली था गगन...कहाँ लुप्त थे नभ के सारे वैभव, बात ये एक राज़ थी...सुबह रिक्त थी...ये रिक्तता पावन होती है... पावन थी... सुबहें मनभावन होती हैं... मनभावन थी...धीरे...

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चुभेंगे अभी और अनगिन शूल... !!

तुम तक आने को...कभीमौन सेतु बनता था...तो कभीकविता बनती थी पुल...ज़िन्दगी!उसे सरमाथे रखा सदैवजो पाई थी, कभी हमने, तुमसेतुम्हारी चरण धूल...देर तक, तट पर, खेलते रहे रज कणों  सेअब किनारों से आगे बढ़ चलीलहरों...

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सब रास्तों के खेल हैं...

गिन रहे थे हमलम्हे...गिनते-गिनतेकितने ही क्षण छिटक गए...राहबहुत लम्बी थी...भावों का जंगल घना था, उलझा-उलझा साजाने कब हम उन राहों में भटक गए...खो गए तब जानाकि क्या होता है पाना...जीवन की क्लिष्ट...

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ओस से, आशाएँ लिखता, मन है... !!

एक दिन ढल रहा था...दूजा निकल रहा था...ये उत्सवविदाई का भी था...और इसमें था निहितआगत का स्वागत भी...स्वागत और विदाई का साथहै अन्योन्याश्रितऔर परंपरागत भी...बूंदों में झिलमिल प्रकाशअँधेरे को चीरती...

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रूकना... चल देना...

एक जगह...एक वजह...इतना तो चाहिए ही,कहीं रुकने के लिए...वरना भला है चलते जाना हीचलते जाते हैं,चले ही जाते हैं...मोड़ से मुड़ते हुएहम ही नहीं बिसारते पुरानी राह को,उनकी स्मृतियों से हम भी बिसर जाते...

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साध रहे हो, साधे रहना मौन...

मत कहना कुछ भीरहना चुप ही...कि चुप्पियों के देश के वासी हैं हम...हमारे आंसू, हमारी आँखेंमुस्कुराता रहे इनमें...सदा सारा गम...मौन का स्वरसालता है...पर है यही जो कितनी ही अनहोनियाँटालता है...इसलिए, साधे...

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अब आजीवन रहना यायावर !!

घर कभी कभी बहुत बहुत दूर लगता है मुझे...बचपन का आँगन जो छूटातो लौट कर भी उस तक लौट पाने की जैसे हर आस टूट गयी...जब सुहानी चलती है हवाखुशगवार होता है मौसम तब कई बार ऐसा लगता है...कुछ नहीं टूटाकुछ नहीं...

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एक पुराने दिन का चाँद...

एक पुराने दिन का चाँदएक पुराने दिन की याद...एक पुराना मौसमअपने बीत जाने के बाद...यूँ भी कभी कभी रहता है--अपने "न होने"में"होने"की टीस सहता है...समय का दरियानिर्विकार बहता है... !!

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संभावनाओं के नाम... !!

कभी देखना समंदरआँखों में...कभी आँखों के आगेसमंदर देखना...बाहर ही बाहरविचरते रहते हैं हम...कभी चलना हो भीतर-भीतर भीदेखें क्या-क्या भेद खोलता है फिर, ये अपने अंदर देखना...सांसों की आवाजाही का संगीतजब...

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नमन शहीदों को...

बर्फ़ की एक पतली चादर सेप्रकृति ने जैसेढंक दिया हो मन का धरातल...कफ़न ओढ़ लिया जीवन नेदेखते रह गएसंवेदनाओं के मरुथल... धीरे से उगा सूरज...बिना किसी तड़क भड़क के साथ...शोक संतप्त हैं उसके भी प्राण...कि जो...

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दुरुहताओं के बीच...

ऐसा कई बार हुआ है...कितनी ही बार कविता ने मुझे बचाया है...कभी मेरी कलम से रिस कर...उसने मुझे रचा है...तो कभी दूर क्षितिज से आईकिसी कालखंड में रची, किसी की कोई कविता, संबल बनी है...जैसे मेरे लिए ही रची...

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मझधार में अटकेगी या पार उतरेगी... ?

ये सुबह का आकाश है... घंटों बीतेंगे अभीतब बर्फ़ से ढँकी श्वेत धरा देख पायेगी ज़रा सी लाली कभी... !इस यात्रारत चाँद को देखते हुएनाव का स्मरण हो आता है... मझधार में अटकेगी या पार उतरेगी... ?कितना रहस्यमय...

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कुछ प्रश्नों का कहीं हल नहीं है... !!

अभी था...अभी नहीं है...सूरज जैसा तेज़जब डूबता उभरता प्रतीत होता है घड़ी-घड़ीफिर परछाईयों कीक्या ही बिसात !अभी थी...अगले पल नहीं है...कुछ प्रश्नों का कहीं हल नहीं है... !प्रश्न भी हों और उत्तरित भी हो...

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डाल-डाल, हरे रंग का, दर्द उगा है... !!

डाल-डाल, हरे रंग का, दर्द उगा है...दुनिया है, यहाँ कोई न किसी का, सगा है...पराये हैं शब्द,भावों की ज़मीन पर लेकिन,अर्थ समर्थ इनमें ही पगा है...सत्य को कर आत्मसात,भावविह्वल हृदयाकाश,बेतरह बरसने लगा...

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काश...

कोई सोच नहीं, कोई फ़िक्र नहीं...काश न होती पीड़ा, न ही होता पीड़ा का ज़िक्र कहीं...यूँ खिड़की से झांकते हुएइस बर्फ़ की बारिश को देखते पल पल विरचते जादू को महसूसतेथमे हुए पल में एक मुट्ठी बर्फ़ हथेलियों में...

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एक इंतज़ार उग आया है...

एक इंतज़ारअनायास उग आया है...ज़िन्दगी को थाहती आँखों मेंजीवन का ही अक्स समाया है...पल पल बीतते पलजैसे आसमान से गिरती हुई बूँदें हैं...पत्तों पर उनके गिरने सेआकृतियों का एक संसार उभर आया है...कहीं से छिटक...

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ज़िन्दगी के खेल में...

पिघलते बर्फ़ के फ़ाहों के साथकुछ लम्हे भी पिघल रहे थे...श्वेत श्याम से माहौल मेंअनदेखे कुछ दीयेजी जान से जल रहे थे...दीपक की लौडगमग करतीफिर स्थिर हो जाती थी...हवा पानी के अपने करतब थेसब अपनी धुन में चल...

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छोटी छोटी अनुभूतियों का आकाश...

धूप रच रही थीसुनहरी आभा...धवल धरा के आँचल में चमकती हीरे सी शोभा...ऐसे क्षण को जी पाना...एक बेहद सामान्य से दिन कोख़ास कर सकता है...ख़ास कर गया... !बर्फ़ की चादर बिछी हुई है...धूप भी गाहे बगाहे रोज़ आती...

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हम भी वहीं कहीं होंगे...

स्कूल के दिनों की याद...कविता फिर हुई कहाँ उन लम्हों के बाद...हमारा बचपन रूठा...अपना शहर छूटा...कितना कुछ टूट गया...वक़्त के साथ स्मृतियों का कारवाँ लूट गया...फिर भी सांस लेती रही दोस्ती...लगाव कहाँ कम...

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सच ही कहती थीं अश्रु लड़ियाँ...

कष्ट होता हैतो अनायास ही आंसू बहते हैं...रोते हैं हम...रो लेते हैं हम...पर रो लेने के बाद के कष्ट का क्या... ??आँखें बेतरह दुखती हैं...मन भी बेतरह दुखता है...कि...किसी ने परवाह न की आंसुओं की...उन्हें...

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