$ 0 0 पिघलते बर्फ़ के फ़ाहों के साथकुछ लम्हे भी पिघल रहे थे...श्वेत श्याम से माहौल मेंअनदेखे कुछ दीयेजी जान से जल रहे थे...दीपक की लौडगमग करतीफिर स्थिर हो जाती थी...हवा पानी के अपने करतब थेसब अपनी धुन में चल रहे थे...इन्हीं सब के बीच...इन्हीं सबमें...कहीं हमारा भी होना था...कभी हम जलती हुई लौ थे...कभी थे उसी लौ को बुझाती हुई हवा...ज़िन्दगी के खेल में दोनों बराबर शामिल थेदर्द और दवा... !!