कोई सोच नहीं, कोई फ़िक्र नहीं... काश न होती पीड़ा, न ही होता पीड़ा का ज़िक्र कहीं...
यूँ खिड़की से झांकते हुए इस बर्फ़ की बारिश को देखते
पल पल विरचते जादू को महसूसते
थमे हुए पल में एक मुट्ठी बर्फ़ हथेलियों में भरकर हँसते
होती ऐसी... हो पाती ऐसी स्थिति... काश ! ये मौसम लौट तो आया है... लौट पायें हम भी उस मौसम को जीने की स्थिति में... ये आश्वस्तताएं लेकर थोड़े ही बरसता है आकाश... !!
झिलमिल श्वेत में सब धुंधला है... छोटा सा वृत्त दृष्टि का, कहाँ कोई दृश्य देर तलक संभला है...
वैसे तो पल है, हर पल पिघल रहा है... इस उथल पुथल में, जीवन निकल रहा है... !!