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Channel: अनुशील
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दूब, तेरी जिजीविषा प्रणम्य... !!

हर एक पन्ने परअंकित हैशब्दों का तारतम्य...और जो सफ़हे रिक्त हैंउनमें है अंकितमौन की भाषा अगम्य...पलटती हुईसुख दुःख के हर पृष्ठ कोहर मोड़ से आगे निकल जाती है ज़िन्दगीविस्मित देखती ही रह जाती है नियति ये...

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कविता सी है...

वो अपने समय पर आएगी...और स्नेह से संग ले जाएगी...ज़िन्दगी की तरहवो अंतहीन इंतज़ार नहीं करवाएगी...वोहर क्षण संग चल रही हैउपस्थित होती हुई भी बस दिखती नहीं है...वो आकरबस बढ़ जाती है आगेनेपथ्य में ही रहती है...

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मृत्यु की नीरवता में...

बस तस्वीरों में है न...वो बचपन...तस्वीरों में ही बच कर रह गए हैं कितने ही एहसासकितने ही पल...सब रिश्ते नाते बस खूंटियों पर टंगी शय होकर रह जायेंगे..."बीते कल"ने सपने में भी नहीं सोचा होगा ऐसा भी हो...

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फिर, एक ऐसा मौसम आया...

बर्फ़ कीपतली चादर से ढँक कर...धरती का मौनजैसे हुआ मुखर... आसमान नेजो लिखे पत्र...सब बांचे गएगंतव्य तक पहुंचकर...अक्षर-अक्षरपढ़ा गया...धरती के आँचल मेंजीवन मढ़ा गया... कहते-कहतेजब गला रुंध गया...तब मौन...

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एक आग है जिसमें जीवन हर क्षण जल रहा है... !!

उसधुंधले से नज़र आते पेड़ की आड़ मेंहम खड़े हों...खेल ये आँख-मिचौनी केजीवन के लिए अवश्यम्भावी होंकहीं न कहीं बहुत बड़े हों...किस्मत के साथ...अपने साथ...अपने अपनों के साथ...ये आँख-मिचौनी का खेल ही तो चल रहा...

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ज़िन्दगी पहेली ही होगी...

एक ज़रा सी बूँद थी...पर अथाह थी...वो स्वयं सागर ही थी...कि वो हर लहर के हृदय में उठती बेचैनियों की गवाह थी...समय का सहज प्रवाह थी...नन्ही सी बूँद अपने आप में अथाह थी... !!अथाह थी...अथाह है...ज़िन्दगी...

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एक दिन सब दुःख मिट जाते हैं...

वो छत थी...चारदिवारी थी उसका आधारमगर वो हर संकुचन से विरत थी...हम उसे एकटक देखते रहे...वो देखती रही आकाश...सीमित रहाहमारी दृष्टि का फ़लक...वो देखती रही निर्निमेषसृष्टि का विस्तार दूर तलक...देखते देखतेखो...

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वो पर्वत पोखर नापती चली...

फूल ख़ुशबू बिखेर कर बिखर गया...मौसम बीता फिर मुस्कुरायी कली...दीये की लौअपनी शक्ति भर जली...उस उजले प्रकाश में...रहस्यमय अँधेरे की उपस्थिति खली...ठहर कुछ क्षण दीये की ओट में...ज़िन्दगी अपनी धुन मेंपर्वत...

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कि जहाँ पहुंचना था वहां पहुँच चुके होंगे हम... !!

हमारे पास एक दूसरे से कहने को दुनिया भर की बातें होतींपर अवकाश नहीं होता...कभी अवसर होता भीतो ऐन वक़्त पर सारी बातें गुम हो जाती थीं...या कही भी जातींतो सबसे आवश्यक बात ही अनकही रह जाती थी...और फिर असीम...

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थी वहीँ आसमान तकती ज़मीं...

खूब रोई थीं आँखें...अब हंसने की कोशिश कर रहे थे आँखों में उभर आये इन्द्रधनुष...पर रूदन ही झलक रहा था...भरा हुआ मन आँखों से छलक रहा था...देखने वाली नज़रों ने महसूस कर ली नमी...आँखों में समाया हुआ था सारा...

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राह दिखाए... हमारा हो जाए... !!

समझ से परे होती हैंकितनी ही बातें...बस अनुभूतियों के आकाश होते हैं...और ये कहाँ कभी भी स्पष्ट होते हैं...हो ही नहीं सकते...बदलता रहता है परिदृश्य...प्रगल्भ होते हैं भावों के मेघ...अक्षरशः ऐसे हम हो ही...

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रात्रि स्नेह से सर पर हाथ फेर जाती है...

रात्रि स्नेहमयी है...भारमुक्त करती है...सुबह के संघर्ष हेतु पुनःआस विश्वास की गगरी भरती है...दिन भर मेंफिर रीत जाता है पात्र...कहीं पहुँचते नहींहम भागते ही तो रहते हैं मात्र...वो साक्षी होती हमारी हार...

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उसके परे संसार जाने क्या है... !!

इंतज़ार...जिन पलों में जीया जा रहा है तुम्हें...उसके परे संसार जाने क्या है...ज़िन्दगी, कौन जाने कब तेरे निशाने क्या है...हर एक पल डूबता उतराताएक क्षण आस...फिर मन उदास...इंतज़ार के रंगों में निहित अनमनी...

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कविता के आँगन में... !!

कविता के आँगन में...बिखरी थीं कितनी ही पंक्तियाँ...कितने ही उद्गार...सब अपने आँचल में समेट लिया...ज़िन्दगी! तुमने हमें क्या क्या नहीं दिया...भाव भाषा का वरदानयुगों युगों के दिव्य संधान तुम हमारे...

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दिसम्बर, स्टॉकहोम और खिड़की से झांकता मन... !!

इस शहर मेंठहरा हुआ दिसम्बर है...उजाले नदारद हैं इन दिनों...धूप का चेहराकई दिनों से नहीं देखा है उदास तरुवरों ने...औरन ही बर्फ़ की उजली बारिश है इस बारकि ढँक ले अँधेरे को... रहस्यमयी श्वेत चादर...

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कोई झरोखा नहीं खुलता... !

बीतती विकटताओं के बीचसहेज रहे हैं हम खुद को...सहेजना ही होगा टूटती बिखरती साँसों को...कि ये हैं तो हम हैं...हम होंगेतब तो संभावनाएं तलाशेंगे...उजाले की खोज़ हमारे होने से ही तो गंतव्य पायेगी...सहेजना है...

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स्नो फॉल

श्वेत डगर...आच्छादित धरती का आह्लादरच गया सुनहरे पहर...ठूंठ पेड़ ढंका रहेगा...रहस्य रोमांच यूँ बचा रहेगा...फिर से रचेगी प्रकृति उत्सव...अंधेरों के बीच उजाले का सूक्ष्म उद्भव...ये बारिशहम मुट्ठी में भर...

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एक दिन लुप्त हो जाते हैं हम...

खो जाना...चले जाना...ये अचानक नहीं होता...हर क्षण घटती रहती है ये जाने की प्रक्रिया तमाम उपस्थितियों के बीचअनुपस्थितियां अपने घटित होने हेतु पृष्ठभूमि रच रही होती हैं...और रचते बसते इन पृष्ठभूमियों...

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लहरें... !!

नम आँखों मेंसम्पूर्ण हृदय की पीड़ा है...आंसुओं में समाया हुआएक अथाह समंदर है...न थाह है...न राह ही...लहरें सदा से रही हैं बेपरवाह ही...उनका दर्दउठते-गिरतेसमंदर में गुम हो जाता है...एक लय मेंपीड़ा रागिनी...

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जटिलताओं के बीच...

जटिल है मन की दुनिया...जीवन भी जटिल है...इन तमाम जटिलताओं के बीचएक ज़रा सी धूप है...उपस्थिति ये स्नेहिल है...पास ही छाँव उदास पड़ी है...शायद मन उसका चोटिल है...इसी धूप छाँव मेंहम भी कहीं है...कि ये...

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