$ 0 0 रात्रि स्नेहमयी है...भारमुक्त करती है...सुबह के संघर्ष हेतु पुनःआस विश्वास की गगरी भरती है...दिन भर मेंफिर रीत जाता है पात्र...कहीं पहुँचते नहींहम भागते ही तो रहते हैं मात्र...वो साक्षी होती हमारी हार कीवो महसूसती है संतोष हमारी हर जीत का...वो सहेजती है हमेंऔर हमारे साथ सहेजा जाता है सबसे अनूठा रंग प्रीत का...पहले शाम को भेजती है...और फिर खुद आती है...रात्रि स्नेह से...सर पर हाथ फेर जाती है...स्वप्न खिला रहेनिद्रा का आशीष मिलता रहे सदा...दिन! तुम्हारी महिमा...तब ही तो हम गा पायेंगे यदा कदा... !!