उस
धुंधले से नज़र आते पेड़ की आड़ में
हम खड़े हों...
खेल ये आँख-मिचौनी के
जीवन के लिए अवश्यम्भावी हों
कहीं न कहीं बहुत बड़े हों...
किस्मत के साथ...
अपने साथ...
अपने अपनों के साथ...
ये आँख-मिचौनी का खेल ही तो चल रहा है...
कभी "होनी"खल रही है, कभी अपना यूँ होना खल रहा है...
एक आग है जिसमें जीवन हर क्षण जल रहा है... !!