इस शहर में
ठहरा हुआ दिसम्बर है...
उजाले नदारद हैं इन दिनों...
धूप का चेहरा
कई दिनों से नहीं देखा है उदास तरुवरों ने...
और
न ही बर्फ़ की उजली बारिश है इस बार
कि ढँक ले अँधेरे को...
रहस्यमयी श्वेत चादर से
आच्छादित रही है धरा, कभी इसी मौसम...
और निर्निमेष देखती रही है जगत के फेरे को...
सुबहें याद करती हैं...
सूरज को...
सूर्यमंत्र के उच्चारण से अँधेरे को ही अर्घ्य समर्पित हो जाता है...
चाँद तब वहीँ कहीं छुपा हुआ मुस्कुराता है...
सूरज न भी दिखे तो क्या ?
सुबहें तो होती हैं... !
लाली ऊषा की
स्मृतियों में शेष है...
उदास दिसम्बर की मिट्टी में समाहित
बिखरी पंखुड़ियों का अवशेष है... !!