$ 0 0 बीतती विकटताओं के बीचसहेज रहे हैं हम खुद को...सहेजना ही होगा टूटती बिखरती साँसों को...कि ये हैं तो हम हैं...हम होंगेतब तो संभावनाएं तलाशेंगे...उजाले की खोज़ हमारे होने से ही तो गंतव्य पायेगी...सहेजना है खुद कोकि हम सहेज सकें उजाले...चाभियाँ सब हमारे पास ही हैं...विडंबना ही है कि फिर भी उदास लटक रहे हैं ताले...कोई झरोखा नहीं खुलता...अंधेरों का दूर तक वर्चस्व हैया हमारी दृष्टि का ही दोष है प्रकाश नहीं खिलता... ?!!