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वो पर्वत पोखर नापती चली...

फूल
ख़ुशबू बिखेर कर बिखर गया...
मौसम बीता
फिर मुस्कुरायी कली...


दीये की लौ
अपनी शक्ति भर जली...


उस
उजले प्रकाश में...
रहस्यमय अँधेरे की
उपस्थिति खली...


ठहर कुछ क्षण
दीये की ओट में...
ज़िन्दगी अपनी धुन में
पर्वत पोखर नापती चली...


जो थी
पलकों पर पली...
वही ज़िन्दगी एक दिन
सांझ की चादर ओढ़ ढ़ली...


सफ़र ज़िन्दगी...
मौत आख़िरी गली...


ठीक वहीँ से अगले वाक्य का
आगाज़ हो गया...
जैसे ही

विराम की बात चली... !!



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