गिन रहे थे हम
लम्हे...
गिनते-गिनते
कितने ही क्षण छिटक गए...
राह
बहुत लम्बी थी...
भावों का जंगल घना था, उलझा-उलझा सा
जाने कब हम उन राहों में भटक गए...
खो गए तब जाना
कि क्या होता है पाना...
जीवन की क्लिष्ट अवधारणाओं से
कैसे होता है, सुलझे हुए निकल आना...
उलझन-सुलझन
सब रास्तों के खेल हैं...
कितने जाने-अनजाने उद्देश्य, कितने ही सपने ढ़ोते
हम पटरियों पर सरपट दौड़ती रेल हैं... !!