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Channel: अनुशील
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यूँ ही तो होगी न... !!

दुनिया है...यूँ ही तो होगी न...सतही ही होगा अधिकांश तत्व...जो मिलेंगे वो सब नहीं होने हैं सागर...स्वभावतः छलकेगा, छलकता ही है गागर...इस उथले स्वभाव सेकैसी निराशा...फिर कैसा क्रोध...उचित है बस मुस्कुरा...

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... कि, जब होकर भी सुबह नहीं होती... !!

होती हैं सुबहें ऐसी भी...कि जब होकर भी सुबह नहीं होती...खोया होता है किरणों का झुण्ड कहीं... जैसे रात भर कहीं विचरते हुएभटक गया हो रास्ताऔर क्षितिज परअपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना भूल गया हो...चाँद भीउदासी...

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कितनी उदास शाम है... !!

कितनी उदास शाम है...उदासी नयी बात नहीं है...इसमें भी कुछ नया नहींकि खुद ही खुद को समझा करथोड़ा सा और मन को उलझा करलौट जाएगीशाम...नया कुछ भी नहीं...फिर भी हर शामबीती  उदासी की पुनरावृत्ति होती हुई भीहर...

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हार की जीत... !!

हम हंस देते हैं रोते-रोतेहँसते-हँसते रो देते हैं कितने ऐसे पल हैं जो हमबस उलझे हुए खो देते हैं आज ऐसे सारे पलों को गूंथ करहार सा एक विम्ब बनाना हैऔर बात जब रिश्तों की हो फिर सारे तर्क-वितर्क परे रख...

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नीर नयनों में भर आये... !!

नीरनयनों में भर आये...दीप जबबुझने को आये...कितने कितने बीते क्षणगूँज उठे...यादों केकितने विम्ब छलछलाये...अपने आयुष्य भरजलता है...फिर यादों मेंरह जाता है...लौ कोधारण करने वाली काया काप्रस्थान...

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नमी के अनगिन टुकड़े और हम... !!

आधी रात के बीत जाने पर सुबह से कुछ दूरएक पहर ठिठका खड़ा था...टप टप बूंदों की झड़ी लगी थी...वो उसमें भींग रहा था...खिड़की सेएक जोड़ी आँखों नेबीतता हुआ एक अध्याय देखा...नीरव अन्धकार के पारबजते बूंदों के...

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दीप, तुम्हारे संघर्ष के कितने वितान... !!

तम के प्रभाव मेंदीये का वज़ूद... बाती जल रही है फिर भी वहांकैसे ये अँधेरे मौज़ूद... ??ऐसे कितने हीद्वन्द सेजूझते हैं मन प्राण... दीप!तुम्हारे संघर्ष केकितने वितान... !!लौ की आस कोधारण किये रखना...कितना...

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अँधेरी रात में वो भोर हो लेता है... !!

प्रारब्ध ने जो तय कर रखा है...वो टलेगा नहीं...पर ये कहाँ लिखा है कि टूट गयातो सपना फिर पलेगा नहीं...सब कुछ खो कर भीपुनः शून्य से प्रारंभ करने कीक्षमता रखता है जीवन...कितने गूढ़ रहस्य समाये हुए है...

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याद एक बिसरी सी... !!

राममन मन्दिर विराजें,मन के आँगन से रावण निर्वासित हो जाये...दीपों केझिलमिल प्रताप सेदृष्ट-अदृष्ट हर कोना सुवासित हो पाये... !!यूँ जलेकि मन प्राणरोशन कर जाये...लौ कीमहिमा के गीतसृष्टि मुक्तकंठ गाये......

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भींगी हुई वसुंधरा है... !!

सुनो...सर्दी के मौसम के लिएभारी-भरकम कपड़ों के साथकुछ रौशनी भी निकाल लेना...सहेजी है न... ???बीते दिनों आँखों भर भर सूरज था...आधी रात के सूरज का कैसा अद्भुत गौरव था...सब सहेज रखा है न ???इस मौसम के...

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फासला उनमें कई सदी का... !

रिश्ता एक सागरऔर नदी का... फासला उनमें कई सदी का... !कितने अवरोध हैं मार्ग में... ?जाने कितनी यात्रा शेष है... ??आशाओं के बचे मात्र अवशेष हैं... !!हतोत्साहित मनऔर रीता हुआ पात्र है...तभी गूंजता है एक...

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आत्मसंवाद... ?!!

लेखनी!जो लिखो तो...बूंदें लिखना...आँख का पानी लिखना...और लिख करउस लिखे से मुक्त हो जाना...हुनर ये पेड़ों से सीखनाक्या होता है जीवन कहलाना... !!कभी निकलना निर्जन पथ पर...तो एहसासों के सूखे पत्ते चुनते...

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जीवन मौन ही मौन घटित हो गया था... !!

आँखों में कुछ नहीं था...सपने टूटे हुए थे...गड़ते थे...कितनी सुन्दर व्यवस्था की है प्रकृति ने...आँसूओं में घुल गए सारे टुकड़ेबह गए...आँखें अब खाली थीं...किसी भी आशा किसी भी सपने से कहीं दूरनिस्तेज...

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दूरियां मात्र आभास हैं... !!

मैंने अपने शहर की बारिश भेजीतस्वीर में उतार करउसने उसे अपने शहर की बारिश सा पहचाना मैंने चाँद भेजाअपने हिस्से के आकाश कावही चाँद उसके यहाँ भी चमकता है उसके हिस्से के आकाश पर... मैंने उगता दिनमान भी...

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जीवन ठिठका खड़ा है... !!

इन दिनों कुछ भी ठीक नहीं है...विदा हो चुके पत्तेअपने पीछे, पेड़ को, सिसकता तड़पता छोड़ गए हैं...शीत लहर चलने लगी है...ठिठुरन है माहौल में...जीवन ठिठका खड़ा है...अनहोनियों की आशंकाएं हवा में तैर रही...

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तुम तक... !!

सजल आँखों से जलायादेहरी पर एक दीप...मन का आँगनलिया पहले ही था लीप...बड़े स्नेह से बुला रहे हैंज़िन्दगी ! आओ न समीप... हम भी तुम तक ही तो आ रहे हैंचुनते हुए भावों के मोती सीप... !! 

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है नमी तो नहीं कोई कमी... !!

त्याग कैसे दे कोईजीवन रहतेजीवन को...आंसू बहते हैंऔर समझा लेते हैंमन को...आँखों के भर आने सेकितना कुछधुल जाता है...अनगिन बातों का बाँधअनायासखुल जाता है...अबबारिश के बाद कीइन्द्रधनुषी नीरवता है...सब ठीक...

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उस एकांत में... !!

वो एक पुल थाआंसुओं से निर्मितउस से होकरपहुंचा जा सकता थाउन प्रांतरों तक...जहाँ तक पहुंचानाकिसी ठोस स्थूलता केवश की बात नहीं... !सूक्ष्म एहसासों तकपहुँचते हुएहम पीछे रह जाते हैं...वहां पहुँचते हैं वही...

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वो अपने ही साये थे... !!

इंसानों की बस्तीपूरी की पूरी खाली थी...उस जमी हुई भीड़ मेंसब पराये थे...आज वोसब अजनबी थे...कल जिनके अपनेपन परहम भरमाये थे...काँप गया मनजिन आहटों से...देखा तो जानावो अपने ही साये थे...मोड़ आ गयाचलते...

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सात वर्ष हुए, हमने शुरू किया था साथ चलना... !!

वैसे येबहुत पहले कीबात नहीं हैपरअब लगता हैएक युग बीत गया है...अनेकानेकपलों कोसंग जीते हुए भीलगता है जैसेहर क्षणसंगीत नया है...कोई भी इम्तहान होकैसा भी जीवन काघमाशान होजीत लेंगे हर मुश्किलकि हमारे सारे...

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