लेखनी!
जो लिखो तो...
बूंदें लिखना...
आँख का पानी लिखना...
और लिख कर
उस लिखे से मुक्त हो जाना...
हुनर ये पेड़ों से सीखना
क्या होता है जीवन कहलाना... !!
कभी निकलना निर्जन पथ पर...
तो एहसासों के सूखे पत्ते चुनते चलना...
कि फिर नहीं होगा इस राह से कभी गुजरना...
उस तक फिर लौट आने की बात बस एक छलावा है
है बस ये मन का बहलाना...
सींचती हुई चलती है ज़र्रे ज़र्रे को, नदिया से सीखना
क्या होता है जीवन कहलाना... !!
कभी गिर पड़ना जो अनजाने ही...
तो दोष अपने सर ही मढ़ना...
यहाँ जीवन के अरण्य में लिखा हुआ अभी कितना कुछ अनचाहा है पढना...
सब देखते, सुनते, समझते हुए
हृदय के चहुँ ओर एक सुरक्षात्मक घेरा बनाना...
कोई भी आहत कर जाए, ऐसा न हो मन, हतोत्साहित न हो, कि...
सीखते सीखते ही सीखेंगे क्या होता है जीवन कहलाना... !!