आँखों में कुछ नहीं था...
सपने टूटे हुए थे...
गड़ते थे...
कितनी सुन्दर व्यवस्था की है प्रकृति ने...
आँसूओं में घुल गए सारे टुकड़े
बह गए...
आँखें अब खाली थीं...
किसी भी आशा किसी भी सपने से कहीं दूर
निस्तेज स्पन्दनहीन...
लगता था...
शायद अब नहीं उगेगी भोर
नहीं बसेगा वहां सपना कोई और
फिर
एक क्षण ऐसा आया...
चमत्कृत हुई आँखें
सपनों को अनायास वहां पलता पाया...
उन्हें जाने कौन बो गया था...
जीवन मौन ही मौन घटित हो गया था... !!