रहता है कुछ अँधेरा ही... ठीक ठीक सुबह नहीं कह सकते, हाँ भाग रहा समय निश्चित ही घड़ी की सुईयों को सुबह की दहलीज़ पर ला खड़ा करता है... और घडी की सुईयों से ही तो नियंत्रित हैं हम तो सुबह तो हो ही जाती है भले ही क्षितिज पर सूर्यदेव का नामोनिशान न हो दिन चढ़ आने तक...!
आधे अँधेरे में गंतव्य तक की राह पकड़ते हुए जाने क्या क्या सोचते हुए हम चलते हैं... पेड़ों के संग चलते हुए कई बार बी एच यु कैम्पस याद हो आता है... रविन्द्रपूरी से सेंटल लाइब्रेरी तक पैदल ही तो चले जाते थे हम... वो भी क्या दिन थे... हैरान परेशान से... पर कहीं न कहीं सुकून भी तो होता ही था... नम घास पर खाली पाँव चलने का सुकून... घर से दूर तपती धूप से झुलसने का एहसास साथ होता था, तो वहीँ पेड़ के नीचे छांव भी थी... वह छांव जो रास्ते भर मेरे साथ चलती थी... और साथ मेरे बैठ भी जाती थी कभी कभी... उस पेड़ के नीचे जहां बैठ कर कितने ही पाठ पढ़े हमने, बायो-इन्फार्मेटिक्स के भी और जीवन के भी.
![]()
आज जब यहाँ आधे अँधेरे में सुबह निकलते हैं... घास पर जमी हुई एक परत बर्फ दिखती है तो ओस की बूंदें याद हो आती हैं... आधी राह तय करते हुए किसी किसी रोज़ आसमान पर अद्भुत छटा बिखरी दिख जाती है... सूरज के आने के पूर्व का महात्म्य जो रच रहा होता है अम्बर...! इधर मौसम ऐसा है कि बादल ही बादल हैं... बारिश ही बारिश है तो बादलों से आच्छादित अम्बर ने ये चमत्कार कम ही दिखाए... बरसने में ही व्यस्त है वह तो! पेड़ों पर से पत्ते गायब हो रहे हैं अब... राह में बिछी हुई चादर सी पत्तियां पैर पड़ने पर जैसे कहती है... "जी ली हमने एक पूरी ज़िन्दगी अब अगले मौसम हम फिर लौटेंगे, तब तक के लिए अलविदा... यादों में सहेजे रखना हमें कि हमारी स्मृति बर्फीले माहौल में हरापन बन कर उगी रहे तुम्हारे मन में"...!
यूँ ही चलते हुए हम अपने आप से ही, अपने माहौल से ही बात करते हुए चलते हैं... अकेला रास्ता होता है... कोई आगे पीछे नहीं होता तो खुल कर बात हो सकती है... होती भी है... बूंदों से, बिखरे पत्तों से, और उन पत्तों से भी जो अभी तक बचे हुए हैं टहनियों पर... बात बादल से भी होती है... हवा जब तेज़ बहती हुई मेरा छाता उड़ा ले जाने का प्रयास करती है तो उसे भी कुछ कह लेते हैं यूँ ही, भले ही वह सुने, न सुने... मेरी बात माने, न माने...! इन सबसे बात करते हुए अपने अपनों से भी बात होती ही है... जो साथ न होकर भी साथ ही तो चल रहे होते हैं...
इतना कुछ होते होते रास्ता तय हो जाता है और हम अपने गंतव्य तक पहुँच जाते हैं... जहां एक व्यस्त और लगभग सुन्दर दिन मेरा इंतज़ार कर रहा होता है!