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Channel: अनुशील
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ललित, आपके लिए...!

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पहले भी लिखा है इसी शीर्षकसे आज फिर यूँ ही कुछ लिख जाने का मन है... आपकी प्रेरणा से आपके लिए...


विचलित हो जाता है मन
रो पड़ता है
समस्यायों का एक समूचा व्यूह
मुझे जब तब जकड़ता है 


सबसे हो दूर कहीं खो जाने की
इच्छा होती है
वजह बेवजह
आँखें बेतरह रोती हैं 



दिशा कोई नज़र नहीं आती
पथ की पहचान नहीं हो पाती 


तब, जो
खिल आता है
समाधान बन कर...
गूँज उठता है
स्वयं
हरि नाम बन कर...
वह
पावन प्रभात हैं आप
भईया, नेह आशीषों की
हमको मिली
अनुपम सौगात हैं आप 


यूँ ही लिख जाना था
बस शब्दों को आप तक आना था
सो लिख गयी
कविता ओझल ही रहती है हमेशा
बस आज एक झलक सी उसकी दिख गयी 


सदा सर्वदा रहें आप
यूँ ही उज्जवल दैदीप्यमान
मिलती रहे दिग दिगंत तक
पथ को आपसे पहचान!


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