बह रहे हैं अविरल आंसू
उद्विग्न है मन...
कहीं न कहीं
खुद से ही नाराज़ हैं हम...
भींगते हुए बारिश में
बस यूँ ही दूर निकल जाना है कहीं...
यूँ भींग जाएँ-
आँखों से बहता आंसू दिखे ही नहीं...
आसमान से गिरती बूंदों में
समा जाएँ अश्रुकण...
और ये भ्रम सच हो जाए-
रोते हुए चुप हो गए हैं हम...
आंसू में ही है कोई कविता
या है कविता में आंसू का होना...
उधेड़बुन में है मन, जाने क्या क्या खो दिया-
जाने कितना अभी और है खोना...
ज़िन्दगी! जितना रुलाना है
आज जी भर कर रुला ही ले...
कितनी रातों के जागे हैं
अब गहरी नींद हमें सुला ही ले...
ज़िन्दगी! तेरा कोई दोष नहीं है
कोई-कोई सुबह ही ऐसी होती है...
तेरे अपने कितने सरोकार हैं
हमारे लिए तू सदा आशीष ही तो पिरोती है...
अब कभी-कभी क्या बरसेगा नहीं अम्बर
आँखें हैं तो, आंसू भी तो होने हैं न...
इसमें ऐसी कौन सी बड़ी बात है?
बादलों को धरती के सारे कष्ट धोने हैं न...
तो बरसो, जितना है तुम्हें बरसना
बादलों! उपस्थिति तुम्हारी प्रीतिकर है...
इस अजीब से मौसम में-
आंसू हृदय से बहता निर्झर है...
और यही है हमारी
एक मात्र सांत्वना...
जीवन हमेशा से ऐसा ही है-
थोड़ा अजीब... थोड़ा अनमना...!