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Channel: अनुशील
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अपने लिए... अपने अपनों के लिए!

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अपने आप को समझाने के लिए ही लिखते हैं हम, किसी हताश क्षण में ये भी अपने लिए ही लिखा होगा तब... उस वक़्त शीर्षक नहीं लिखते थे पर तारीखें हैं लिखी हुई... २६.३.१९९८ को लिखित यह रचना जिस मनःस्थिति में लिखी गयी होगी, उस मनःस्थिति का सामना तो हम सब ही करते हैं... जीवन है तो हताशाएं भी हैं... निराशा भी है... और कविता इन्हीं विडम्बनाओं के बीच से जीवन खोज निकालने का भोला भाला सा प्रयास ही तो है... तब की उकेरी कुछ पंक्तियाँ वैसे ही उतार ले रहे हैं यहाँ... अपने लिए... अपने अपनों के लिए! 


एक रौशनी... एक किरण
कहीं दूर हुआ उसका अवतरण
मन उल्लासित हो उठा
आगे बढ़ने की उत्कंठा से मचल उठा
रौशनी ने जो स्फूर्ति का संचार किया
विश्रामरत क़दमों ने आगे बढ़ने पर विचार किया 


अन्धकार के भय से रूकने वालों... पंछियों को उड़ते देखो
तम का सीना चीरते देखो
अरे! तुम तो मनु की संतान हो
प्रभु की अनंत कृतियों में सबसे महान हो
यूँ हताश हो महफ़िल से उठ गए
ज़िन्दगी से यूँ रूठ गए
मानों जीवन एक अभिशाप हो
जीना दुष्कर हो... दुराग्रहपूर्ण ताप हो
ठोकर खाने में बुराई नहीं है
पर गिर कर गिरे रहना कोई चतुराई नहीं है...


याद है...
कुछ समय पहले की ही बात है
नन्हे कदम डगमग कर चलते थे
हज़ार फूल राहों में खिलते थे
तुम्हें ठुमक ठुमक कर चलता देख
मात पिता के प्राण खिलते थे
तुम अनायास गिर जाते थे
मगर फिर उठकर दूनी गति से भाग पाते थे
चाहत ही कुछ ऐसी थी कि नाप लें ज़मीं
नया नया चलना सीखा था... अच्छी लगती थी घास की नमीं 


दिमाग पर जोर डालो
और उस भावना को खोज निकालो
जो वर्षों पहले दफ़न हो गयी
तुम्हारे भोले भाले बाल मन की कफ़न हो गयी 


सरल मधुर सा था स्वभाव
दौड़ने की चाह में विश्रामगृह बने कई पड़ाव 


पर याद करो... तुम बढ़ जाते थे
गिरने के बाद स्वयं संभल जाते थे
कुछ पल के लिए दर्द रुलाता ज़रूर था
पर तुम्हारे अन्दर सीखने का कुछ ऐसा सुरूर था
कि चोटों पर ध्यान ही गया कहाँ
लगता था जैसे अपना हो सारा जहां
माँ की ऊँगली पकड़ चलते थे
आत्मनिर्भर होने को मचलते थे 


क्या स्मरण नहीं तुम्हें तुम्हारा वह अतीत
जब तन्मयता थी तुममें आशातीत
निर्मल निश्चल थी तुम्हारी काया
तुमने स्वयं रघुनन्दन का रूप था पाया 


उन मधुर क्षणों को याद कर
जरा सा बस प्रयास कर 


आज भी तो सुख दुःख की ऊँगली थामे ही चलना है
नन्हे बालक की तरह गिरकर पुनः संभलना है  


जो भोला भाला मनु स्वरुप
आज कहता है जीवन को कुरूप
उसे ज़िन्दगी के करीब ले जाना है
निराश हताश मन को तुम्हें अमृतपान कराना है...!!!


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