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Channel: अनुशील
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कुछ विम्ब इस शहर के!

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स्टॉकहोम में हमारे साथ एक हफ्ते रहकर वापस लंदन जा रही थी अनामिका, एअरपोर्ट के लिए बस में बैठ चुकी थी और ये तस्वीर हमनें बाहर से क्लीक की थी…! ये ख़ुशी जो चेहरे पर झलक रही है यह मुझसे छुटकारा पाने की ख़ुशी भी हो सकती है, पर शायद ऐसा नहीं है… ये मुस्कराहट खिली है क्यूंकि मोबाइल पर इन्टरनेट एक्सेस हो रहा है, बस के वाई फाई के प्रताप से और इसका अर्थ यह हुआ कि हम उसकी एअरपोर्ट तक की यात्रा में साथ हो सकते है मोबाइल द्वारा बात चीत के माध्यम से!
बस खुल गयी और आँखें भर आयीं. हम ट्रेन स्टेशन की ओर बढ़े, जब तक हम घर पहुंचे वह भी एअरपोर्ट पहुँच गयी. और संपर्क नहीं टूटा!
२७ अगस्त से ३ सितम्बर::  ये समय याद रहेगा हमेशा! धन्यवाद अनामिका हमें इतने यादगार पल देने के लिए!
***
ये प्रारंभ लिख कर विराम ले लिया था आज के लिए क्यूंकि क्लास है आज, सेमीनार में सारी बातें समझ आयें इसलिए लिटरेचर तो पढ़ कर जाना ज़रूरी ही है.
फिर सुबह सुबह उठना हमेशा कहाँ हो पाता है, अभी ऐसा हो पा रहा है तो सोचा थोड़ा टहलना भी हो जाए... एक बार मौसम बदला, बर्फ़बारी शुरू हुई तो फिर टहलना-वहलना भी आकाश कुसुम सा दुर्लभ हो जाना है! पर, ये कहीं सिद्ध थोड़े किया गया है कि टहलना हमेशा अच्छा ही होगा, कभी कभी कोई एक दृश्य, कोई एक कदम कोई एक किरकिरी सारी शुद्ध हवा पर भारी पड़ जाती है और टहलने का उत्साह छू मंतर हो जाता है, जिस भी कारण से बिगड़े, अब मूड ठीक नहीं है तो ऐसे में हमसे पियाज़े की थियोरी तो समझ आने से रही…! पढ़ाई छोड़ कर अभी याद करते हैं वह समय जब अनामिका यहाँ थी और हम खुश थे!
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इंसान जहां रहता है, वहाँ की महत्ता से दूर ही रहता है… जाने ऐसा क्यूँ है कि छूट जाने के बाद ही समझ आती है, चाहे वो ज़िन्दगी हो…  चाहे वो स्थानविशेष हो...! रिश्ते नातों को लेकर भी तो हमारा रवैया कुछ ऐसा ही है, लोगों की कद्र भी तो उनके न होने पर ही किये जाने की विचित्र परिपाटी है इस जग में और इसी परिपाटी का निर्वहन हम किये चले जाते हैं.… कितनी विचित्र है न ये बात कि समय रहते कुछ भी नहीं जानते पहचानते हम!
अनामिका के आने से ये एक और अच्छी बात हुई की बहुत ज्यादा तो नहीं पर स्टॉकहोम के कुछ एक महत्वपूर्ण ठिकानों को हमने समग्रता में देखा, महसूस किया. अब अगर लिख भी जाएँ सारे अनुभव तो और बढ़िया होगा, अनुशील के पन्ने पलटते हुए याद करेंगे इन लम्हों को जो समय के साथ एक रोज़ धुंधले पड़ जाने ही हैं!
सिटी हॉल, स्टॉकहोम की वह ईमारत है जहां हर वर्ष १० दिसंबर को भव्य आयोजन होता है नोबल प्राइज वितरण समारोह के उपलक्ष में. 
यहाँ पहले भी आना हुआ है पर बाहर ही बाहर घूम कर चले जाते थे, इस बार भीतर गए, ब्लू हाल और गोल्डन हॉल में प्रवेश किया, उनका वैभव महसूस किया!
एक विडियोमिली है, इसे देखा जा सकता है, वैसे अपने शब्दों से तो हम कुछ वैसा ही चित्र खींचने का प्रयास करेंगे ही!
तेज़ बारिश में एक छतरी के सहारे हम दोनों बहनें सेंट्रल स्टेशन से सिटी हॉल पहुंचे पैदल, मज़ा आया. अनामिका बचती हुई चल रही थी और हम जानबूझ कर थोड़ा भींगते हुए! 
सिटी हॉल पहुँच कर बहुत सारी तसवीरें लीं बारिश की, छतरी की, छतरी के साथ अनामिका की भी! तस्वीर खिंचवाते नवविवाहित जोड़ों को ठहर कर देखते रहे. दुल्हन की पोषाक ने हमारी बहना को विशेष आकर्षित किया, ऐसे भी सफ़ेद और काला, दोनों ही रंग सर्वाधिक प्रिय जो हैं उसके. अफ़सोस! हमारे यहाँ इन दोनों में से किसी भी रंग का चलन नहीं है किसी भी शुभ अवसर पर, कोई और रंग में रुचि जगाओ बहना!

एक डेढ़ घंटे बिताये हमने यूँ ही फिर तबतक अपना कुछ जरूरी काम निपटा कर सुशील जी भी आ गए. हम तीनों ने बारी बारी से फोटोग्राफी की, जगह की, एक दूसरे की, दो की तीसरे ने.…
फिर हम सिटी हॉल के गाइडेड टुवर के लिए टिकट खिड़की की ओर बढ़े. तीन बजे का अगला समय था, घंटे भर और इंतज़ार करना था… पर कोई बात नहीं, तीन लोग हों और फोटोजेनिक सिटी हॉल हो फिर एक घंटे तो पलक झपकते ही बीत जाने हैं!

अब तीन बजने को थे और हम एक ग्रुप में अपनी गाइड के साथ अन्दर प्रवेश कर रहे थे. सुशील जी पहले भी आये हुए हैं यहाँ अकेले किसी किसी कार्यक्रम में सो उन्होंने गाइड की बातें पहले भी दो तीन बार सुनी हैं, सो इस बार उनकी ड्यूटी थी तस्वीरें लेना और हम दोनों बहनें गाइड को फॉलो कर रहे थे और उसकी बातों पर कान लगाये हुए थे!

अभी हम खड़े हैं बैंक्वेट हॉल में अर्थात ब्लू हॉल में, जो कहीं से भी ब्लू नहीं है! असल में इसके निर्माण काल में मूल डिजाईन और प्लान्स में कई फेर बदल हुए, अंततः लाल इंटों को ही उपयुक्त माना गया पर आर्किटेक्ट के दिए हुए ओरिजिनल नाम को डिजाईन के साथ नहीं बदला जा सका टेक्निकल समस्यायों के कारण और गाढ़े लाल रंग की इंटों से बना यह हॉल ब्लू हॉल ही रह गया. इन इंटों को स्वीडिश भाषा में "मुन्कतेगल"कहते हैं अर्थात सन्यासी की इंट क्यूंकि परंपरागत रूप से इनका उपयोग मठ व चर्च के निर्माण में हुआ करता था. सिटी हॉल के निर्माण में बारह वर्ष लगे, १९११ से १९२३ और करीब ८ मिलियन लाल इंटों का उपयोग हुआ. ईमारत का उद्घाटन २३ जून १९२३ को हुआ (गुस्ताव वासाके आने के ठीक ४०० वर्ष बाद). 

अपने सीधे दीवारों और आर्केड के साथ ब्लू हॉल में एक कोर्टयार्ड(प्रांगन) के सभी  प्रतिनिधि तत्व शामिल हैं. यह वार्षिक नोबेल पुरस्कार समारोह के बाद आयोजित भोज के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले डायनिंग हॉल के रूप में जाना जाता है. ब्लू हॉल का ऑर्गन स्कैंडेनेविया में सबसे बड़ा पाया जाने वाला ऑर्गन है जिसमें १०,२७० पाइप हैं!

ऊपर जहां से रौशनी आ रही वह खुली जगह है. जैसा कि  गाइड ने बताया, पहले ऊपर से पूरी तरह खुला हुआ करता था यह हॉल फिर कालांतर में ऊपर छत का निर्माण हुआ. 

इस भव्यता में प्रवेश कर रही किरण सुहानी थी. ये स्पष्ट था कि खूब बरस कर अम्बर अब शांत हो चुका है और सूर्य देवता स्टॉकहोम की शाम को सुहाना करने को उग आये हैं. अभी गोल्डन हॉल की सैर बाकी है. अब हम गाइड को फॉलो करते हुए ऊपर बढ़ते हैं… गोल्डन हॉल की और!

गोल्डन हॉल की कहानी अगली पोस्ट में कही जायेगी क्यूंकि उसके विषय में कहने को बहुत कुछ है! कुछ तथ्य, कुछ कहानी, कुछ अनुभव और ढ़ेर सारी तस्वीरें! 
ऊपर आकर ब्लू हॉल की कई तसवीरें क्लिक हुईं… भीड़ बढ़ रही थी गंतव्य की ओर और हम कोई खाली सा कोना देख यहाँ के कुछ लम्हे हमेशा के लिए अपनी खातिर सहेज रहे थे.
जहां गैलरी में हम खड़े हैं वहीँ से चल कर पुरष्कार विजेता नीचे जाते हैं. सीढ़ियों का निर्माण कुछ यूँ किया गया है कि सहज रूप से उतरना हो सके और चाल बिलकुल एलिगेंट हो. गाइड ने इस विषय में कई तथ्य साझा किये मसलन उतरते वक़्त दीवारों में बने किस झरोखे की ओर नज़र हो तो सबसे अच्छा पोस्चर होगा, सबसे अच्छी तस्वीर आयेगी. 
आखिर नोबेल पुरष्कार का आयोजन है, सबकुछ पर्फेक्ट्ली डिजाईन तो होना ही है! 
अब सीढ़ियों की तस्वीर और उन झरोखों की भी जो ठीक सीढ़ी से उतरते हुए सामने पड़ती हैं.… 
एक पोस्टकार्ड लिया था उसी की तस्वीर…. समारोह में कुछ ऐसी छटा होती है ब्लू हॉल की! यह दृश्य कितना आकर्षक है न!
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कल से लिखना शुरू किया था, आज पूरी हुई ब्लू हॉल की कहानी. कल जैसा भी रहा हो, दिन की शुरुआत अच्छी ही हुई है आज.… 
अभी ब्राह्म मुहूर्त की बेला है, मन शांत है, बाहर कोहरा है और हमें पता है कि रौशनी हो जायेगी कुछ घड़ी में क्यूंकि बाल अरुण अपने किरण पथ पर सवार हो निकल चुके हैं रोशन करने संसार को!


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