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Channel: अनुशील
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जून की आख़िरी शाम

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धूप उतर रही थी भीतर
बाहर उमस भरी छाँव थी 


सब अपनी तरह से
अपनी-अपनी दिशा में
गतिमान थे 


वक़्त कहीं ठहर गया था
वैसे ही जैसे 

पेड़ों की डालियाँ अनासक्त स्थिर सी थीं 


हवा थमी हुई थी 


ऐसे में 

जो दीप जलाते 

तो एक ही बार में जल जाते
हवा के वेग से बाती को अनावश्यक संघर्ष नहीं करना पड़ता 


जैसा कि सामान्यतः होता है 


पर आज हमें बाहर नहीं
मन के भीतर एक दीप जलाना था 


बाहर जो रोज़ जलाते हैं उस दीपक से प्रेरणा ली
और प्रतिकूलताओं की आँधियों के बीच
मन में एक दीप जलाया 


जून ने
जाते हुए
यूँ बाती को सांद्र किया !













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