खिड़की
खुलती है समंदर की ओर
समंदर
जिसे छिपा लिया है
सामने फैले हरेपन ने
दूर बादलों का जमघट
अठखेलियाँ कर रहा है
बरस रहा है आसमान
एक घर वहाँ
क्षितिज से लगे
मुस्कुरा रहा है
सूरज का उगना-डूबना
वह निर्निमेष कब से
निहार रहा है
लाली छाई है
यहाँ, इस ठौर, सभी तमाशाई हैं
चल रहा है खेल
खेल ही तो निरंतर चल रहा है
खिड़की रोज़ देखती है--
एक दिन निकल रहा है
एक दिन ढ़ल रहा है!
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स्टॉकहोम, २०१७ |