हम में से हर कोई संवेदनशील है,
बुराई की भर्तस्ना करता है,
शांतिप्रिय है,
है हम सबमें विवेक…
फिर कहाँ से आते हैं वो लोग
जो उन्माद फैलाते हैं?
क्यूँ है इतना हाहाकार संसार में?
कहाँ से आती है इतनी कटुता?
क्यूँ रो रही है मानवता?
जब सब अच्छे हैं,
तो क्यूँ है ये दुर्दशा???
इन प्रश्नों से जूझते हुए बेहाल थे
मन उद्विग्न था बेचैन कई सवाल थे
इतने में कहीं से आवाज़ आयी…
भीड़ कोई चिल्लाई
भीड़ की कोई सोच नहीं होती
भीड़ की कोई संवेदना नहीं होती
भीड़ का कोई आदर्श नहीं होता
भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता,
भीड़ की कोई नागरिकता नहीं होती
और इंसानियत…?
इंसानियत का तो
दूर दूर तक भीड़ से कोई वास्ता ही नहीं होता…
इसलिए भीड़ से
किसी भी सद्विचार की अपेक्षा करना ही व्यर्थ है.…
भीड़ सिर्फ ताकती है,
तमाशे का हिस्सा होती है
या फिर
होती है तमाशबीन!
जहां भीड़ न हो ऐसी जगह जा कर बस ऐ दिल…!