निरुद्देश्य पैदल चलते हुए
रास्ते-दर-रास्ते अपने पाँव से नापते हुए
गति को आयाम मिलता रहा
जितना चलते चले गए
धूल पटे रास्तों पर
लगातार
उतना ही
अंदर की यात्रा में
पैठ बढ़ती रही
चलते-चलते
पाँव चेतना शून्य होते गए
पास से छू कर गुज़रती हुई हवाओं का स्पर्श
सम्मोहित करता रहा
स्व से पार की सीमा में
जाने कब प्रवेश हुआ
कहना कठिन है
पर जान सके यह जब महसूस हुआ-
धीरे-धीरे परिस्थितिजन्य सम्पूर्ण क्रोध वाष्पित हो जाना
उसके वाष्पित होते ही अपने ही भीतर करुणा के प्राकट्य से धन्य हो पाना
अश्रुविग्लित आँखों से
धूँध छँटती सी महसूस हुई
तर्क-वितर्क की निरर्थकता
स्वतः ही
चेतन मन पर प्रकट हो आयी
अपनी यात्रा सुगम रहे इस ख़ातिर
औरों की सुगमता का मार्ग प्रशस्त करना
कहीं न कहीं स्वतः सिद्ध सी बात है
यही ध्येय हो
कि
अंततः सकल यात्राएँ
ख़ुद से ख़ुद तक की यात्रा ही है
बाहर विचरते हुए हम
अन्यान्य भावों के दास न होकर
उन पर स्वामित्व हासिल करें
यह स्वमेव हो
कि
अंततः सारी कलह शिकायतें
यहीं रह जानी है
हमारे पास अपना कहने को एक ही ज़िन्दगानी है
और वो भी क्षणभंगुर
किंचित लघु!