$ 0 0 रो लें जी-भर करसर दे मारें दीवारों परपरज़िन्दगी मजबूर है क्या ?!जो आँसू पोंछगीगले लगाएगी ?!अरे!वह तोअपनी धुन में चलती हैअपनी ही धुन मेंचलती चली जाएगी!मुड़ कर देखने का उसे अवकाश नहीं हमारा मन पढ़ ले ये उसका अन्दाज़ नहीं ख़ुद हमें ही घुटनों की धूल झाड़आगे बढ़ना होता हैउसका साथ बना रहे इसके लिएपरिस्थितियों की दुर्गम पहाड़ियों को चढ़ना होता है इतना सब करते हुएअपने आप पर किया विश्वास फलित होता हैज़िंदगी अपना लेती हैकि कभी-कभी उसका मन भी द्रवित होता है !