जिसे कल पर छोड़ा जाता है वो हमेशा के लिए छूट जाता है... बारिश ने स्क्वायरपर उतरने नहीं दिया और अगला दिन वैटिकन सिटी के नाम रहा. स्क्वायर पर समय बिताना नहीं ही हो पाया. और भी बहुत कुछ था जो छूटा पर अभी बात करें उन पड़ावों की जिसे छू पाने में सफल रहे, भले समग्रता में नहीं, एक दूरी से ही सही!सुबह सुबह तैयार हो कर हम टहलते हुए निकले, पैदल चलना जो दे सकता है वह भागते हुए या किसी वाहन पर सवार होकर कभी नहीं मिल सकता!***रोम यात्रा की अंतिम कड़ी लिख जाने के उत्साह ने कल हमसे अगले पोस्ट की तैयारी शुरू करवा दी, मन ही मन वैटिकन सिटी का मार्ग स्मृतियों में ढूँढने लगे हम और यहाँ लिखने लगे पर ऐसा थोड़े ही होता है कि एकाग्रचित्त हो कुछ कर रहे हों और एकाग्रता भंग न हो. तो मेरी भी एकाग्रता भंग हुई जब याद आया कि सेमीनार (लेक्चर के बाद जो क्लासेज होती हैं, उन्हें यहाँ सेमीनार कहते हैं) अटेंड करना है तो लिटरेचर पढ़ कर जाना होगा, सो वही करने में लग जाना उचित लगा. कल का समय फिर विगोत्सकीकी थियुरिज़ पढने में चला गया, कितना आत्मसात हुआ यह तो अब आज के सेमीनार में ही पता चलेगा…! कल यह निश्चय किया था कि सुबह उठना हो गया तो ये रोम यात्रा आगे बढ़ायेंगे, उठे भी पर निकल गए एक और यात्रा पर… अज़दककी यात्रा, एक एक क्लिकपर उमड़ता घुमड़ता समंदर अभिभूत करता रहा और हम टहलतेरहे बिना किसी हड़बड़ी के.बिना कहीं पहुँच जाने की जल्दी के जो टहलना होता है न, घास पर पड़ी ओस की बूंदों को महसूस करते हुए जो खोयी खोयी सी गति होती है न.… कुछ कुछ वैसा ही! ओस की बूँदें महसूस हों और ये भाव न आये कि शायद पत्ते रोये हैं रात भर… ये कैसे हो सकता है; हमारे मन ने भी ओस की बूंदों के अनलिखे कुछ अक्षर पढ़े और अनूदित होती गयी कुछ पंक्तियाँ भीतर ही भीतर, उगी एक दूब और झिलमिला उठी एक ओस की बूँद उसके ऊपर और हमारा मन भींग उठा. सच कभी कभी ऐसे भी भींगना चाहिए, कि केवल पोर गीली हो आँखों की जबकि भीतर दर्द का एक सागर लहराता हो!
***एक बेहद उदास शाम थी, कुछ पत्र लिखे उस दिन.… एक का जवाब मिला. शाम कुछ मुस्कुरायी. फिर जवाब देने वाले के प्रताप से ही पता मिला उस रोज़ वहाँ का. पॉडकास्टसुना… आवाजों के आसपास होने की आश्वस्तता ने हमें उबार लिया और तब से उस ओर जाना होता रहता है… आवाजें सुनने और कभी कभी सन्नाटों की गूँज सुनने भी!
लहरें होती ही हैं ऐसी, उनसे पहचान हो जाए तो समंदर का भी पता मिल जाता है.…! अरे वाह, ये तो कितना बढ़िया कोइन्सिडेन्स है:: लहरें की स्वामिनी से ही तो सागर का पता मिला था!***ऊपर के लिनक्स क्लिक किये गए तो निश्चित ही वह शब्द यात्रा समृद्ध करेगी कई स्तर पर… और फिर तो उपस्थित होगी समक्ष एक लम्बी यात्रा पर निकल जाने की कूंजी!ये वैटिकन की यात्रा तो हम ऐसे ही लिख जा रहे हैं अब… अटकी हुई कुछ याद और धूमिल न हो जाए इससे पहले कुछ एक रेखाएं खिंच लें इधर अनुशील पर…
रास्ते की एक तस्वीर बस से ही::सुना है, बहुत बार पहुँच कर भी पहुंचना नहीं हो पाता, यह सत्य अनुभूत भी हुआ! आज खोज रहे हैं तो लग रहा है जैसे स्मृतियों में सहेजा हुआ जो है वैसी तो कोई क्लीक की गयी तस्वीर मिल ही नहीं रही फोल्डर में. तसवीरें खो गयीं या क्लिक ही नहीं की गयीं तब.… पड़ाव से यूँ रिश्ते तलाश रहा हो कि कैमरे की ओर ध्यान ही न गया हो, मन की ऐसी दशा भी तो हो सकती है न, रहा होगा कुछ ऐसा ही, खैर…. वैटिकन सिटी पृथ्वी पर सबसे छोटा, स्वतंत्र राज्य है, जिसका क्षेत्रफल केवल ४४ हेक्टेयर (१०८.७ एकड़) है! इसकी राजभाषा है लातिनी, ईसाई धर्म के प्रमुख सम्प्रदाय रोमन कैथोलिक चर्च का यही केन्द्र है, और इस सम्प्रदाय के सर्वोच्च धर्मगुरु पोप का यही निवास है.
बचपन में कोई चौथी क्लास के जनरल नॉलेज बुक से रटे गए कुछ तथ्य कौंध गए. भीड़ को मंजिल तक पहुँचाने का बीड़ा उठाये कुछ लोग तरह तरह की जानकारियाँ दे रहे थे, हमने सब धैर्यपूर्वक सुना और अपने विवेक से यह निर्णय किया कि बिना किसी दिशानिर्देश के जो जितना हो सकेगा वही देखा जाएगा. ऐसे भी सबकुछ एक ही बार में देख समझ लिया तो फिर यहाँ आने को क्या मकसद रह जायेगा! फिर आने की एक सम्भावना जीवित रहे, इस खातिर कुछ छूट जाए यात्रा में, वही अच्छा होता है.…बूंदों के बीच से, बूंदों को महसूसते हुए बहुत अच्छे क्षण जीए गए यहाँ पृथ्वी के सबसे छोटे राज्य में! पूरी पृथ्वी हमारा घर है, घर का एक यह कोना यह भी.… जाने कितने कोने अदेखे ही तो रह जाने हैं!टुकड़ों में समेटी गयी भव्यता क्यूंकि हमारा सामर्थ्य नहीं कि समग्रता में ग्रहण कर पाएं कुछ भी. जीवन में भी तो ऐसा ही चलता है… टुकड़ों में जीना, टुकड़ेही समेटना और एक दिन टुकड़े टुकड़े हो भी जाना!इस शहर में एक पोस्ट ऑफिस था, बहुत सारे लोग यहाँ से अपने प्रियजनों तक सन्देश लिख कर सोविनर पोस्टकार्ड पोस्ट कर रहे थे. हमें भी बहुत अच्छी लगी यह बात, पर हमने न कोई पोस्टकार्ड लिया न ही कुछ पोस्ट किया! पर आज सोचते हैं तो लगता है, सोचना नहीं चाहिए था, कुछ पोस्टकार्ड तो पोस्ट कर ही देने चाहिए थे वहाँ से अपने अपनों तक, दूर रहते कुछ सपनों तक….!वैटिकन सिटी दुनिया के महान एवं प्रसिद्ध कला का निवासस्थल है. सेंट पीटर्स बैसिलिका नवजागरण वास्तुकला का एक प्रसिद्ध उदहारण है जिसमें क्रमशः कितने ही आर्किटेक्टों ने अपना योगदान दिया है… ब्रामनते, माइकल एंजेलो, गियाकोमो डेला पोर्टा, मेडार्नो औरबर्निनी!सिस्टिन चैपल अपने भित्तिचित्रों के लिए प्रसिद्ध है जिसमें पेरुगिनो, डोमेनिकोऔर बोत्तिसेलीकी कलाकृत्तियां शामिल हैं, साथ ही छत पर की गयी माइकलएंजेलो की कारीगरीऔर लास्ट जजमेंट भी. वैटिकन और उसके अंदरूनी हिस्सों को सजाने के कार्य में और जिन्होंने योगदान दिया उनमें रफएल और फ्रा अन्ज़ेलिको शामिल हैं. माइकल एंजेलो की यह कृति वेटिकन की सर्वश्रेष्ठ ज्ञात कलाकृतियों में से एक है. कौन नहीं अभीभूत होगा इसछवि को देख कर!वेटिकन अपोस्टोलिक लाइब्रेरीऔर वेटिकन संग्रहालय के संग्रह का उच्चतम ऐतिहासिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक महत्व है. १९८४ में, वेटिकन विश्व धरोहर स्थलों की सूची के लिए यूनेस्को द्वारा जोड़ा गया है. सूची में स्थान पाने वाला यह इकलौता राज्य है. इसके अलावा, हेग कन्वेंशनके अनुसार, यह स्मारकों से युक्त एक केंद्र के रूप में यूनेस्को के "विशेष सुरक्षा के तहत सांस्कृतिक संपदा के अंतर्राष्ट्रीय रजिस्टर" में पंजीकृत होने वाला पहला राज्य भी है. तथ्य हैं बहुत सारे, बहुत सारे तब के लिखे चुटके पूर्जे हैं, जिन्हें खंगाला और कुछ कुछ सहेज लिया इधर. क्या पता था शहर में भी एक शहर बसा होगा… नहीं तो और समय ले कर आये होते, रोम लौट जाने की जल्दी न होती तो और देखा समझा होता वैटिकन को!अब वापस चलना था, शाम हो चुकी थी.… अगला पड़ाव था त्रेवी फाउंटेन! रोम के त्रेवी प्रदेश में स्थित यह फाउंटेन विश्वप्रसिद्ध है, इसे निकोल साल्वीने डिजाईन किया था और अंतिम रूप पिएत्रो ब्रासीद्वारा दिया गया था. हम जब यहाँ पहुंचे तो अँधेरा रोशन था, भीड़ थी और कुछ काम भी चल रहा था, अच्छी तसवीरें नहीं ले पाये…. खैर, एक और परंपरा है यहाँ की : सिक्के फेंकने की. कहते हैं, यहाँ सिक्का फेंकने वाले पर्यटक वापस फिर कभी रोम ज़रूर आते हैं.अनुमानतः प्रतिदिन ३००० यूरो के सिक्के फेंके जाते हैं इस फाउंटेन में. इस राशि का इस्तमाल रोम के जरूरतमंद लोगों के लिए एक सुपरमार्केट में रियायत देने हेतु किया जाता है. ये तीन हज़ार यूरो के कोयंस का आंकड़ा सच ही होगा, देखिये हमने यह तस्वीर ली थी वहाँ फाउंटेन की, सिक्के झलक रहे हैं न अनगिनत. कैसा तो होता है न हमारा मन, सब एक ही तार से जुड़े होते हैं चाहे कहीं के भी लोग हों, सब लौटना चाहते हैं फिर से एक बार वहाँ, जहां से होकर आ चुके हैं. ये साझे भाव न होते, यूँ हम भिन्न होकर भी अभिन्न न होते तो कैसे होते इतने सिक्के इस पानी में. अब हम तो नहीं जानते थे सिक्के को सही ढंग से फेंकने का तरीका तब, सो बस ऐसे ही डाल दिया. मेरी अज़ीज दोस्त राही के ब्लॉगपर घूमने जाएँ अगर आप तो मिल जायेगी सही ढंग से सिक्के उछाले जाने की एक तस्वीर. स्वीडिश भाषा में हाल ही में उसने लिखना शुरू किया है, मूलतः ईरान की रहने वाली मेरी यह दोस्त बहुत कुछ अच्छा सहेज रही है. उसे बधाई!उसे हिंदी नहीं आती, वो नहीं समझेगी कि हमने क्या कहा अभी उसके बारे में यहाँ, पर भाषा से परे जो भावों का संसार है वहाँ कई बार हम एक ही धरातल पर खड़े होते हैं....!अब स्पेनिश स्टेप्स की ओर चलें, यहाँ तक जाना बस "हाँ.… न" करते हुए यूँ ही हो गया था… समय यूँ भाग रहा था कि पकड़ना मुश्किल था और हम अंतिम बस मिस नहीं करना चाहते थे इसलिए बस बैठ गए हॉप ओन हॉप ऑफ का इंतज़ार करते हुए वहीं सड़क पर बस का कोई ठिकाना नहीं था और इंतज़ार करना खल रहा था. आस पास भी कई और लोग उसी बस की राह तक रहे थे. सुशील जी ने वहाँ उपस्थित कुछ निवासियों से बात की तो पता चला कि इंतज़ार किया जा सकता है पर कई बार ऐसा भी होता है कि बस नहीं आती. हम लोग काफी देर तक रुके रहे इसी अवस्था में, हॉप ओन हॉप ऑफ जाने कहाँ रह गया कि दो दिन का साथ बिसरा गया और हमें हमारे गंतव्य तक अंतिम बार पहुँचाने से चूक गया! गूगल मैप के सहारे इतना पता कर लिया गया कि होटल तक पैदल जाया जा सकता है, फिर हम कुछ इत्मीनान हुए. काफी आराम हो चुका था बस के इंतज़ार में तो हम स्पेनिश स्टेप्सकी ओर बढ़ ही गए. कुछ समय वहाँ बिताया, किसी आस पास के स्पॉट पर बस का फिर भी कुछ अता पता नहीं था, शायद अपने चक्कर लगाने में ये रुट मिस हो गयी हो बस से या फिर जान बूझ कर हमें वहाँ से पैदल चलाने की कोई मंशा को नियति अंजाम दे रही हो, कौन जाने!अब धीरे धीरे बढ़ना था सीढ़ियों को पीछे छोड़ समतल सड़क पर अपने ठिकाने की ओर!रास्ते में तसवीरें लेते हुए, शाम को घर लौटते कदमों की ताल सुनते हुए हम चलते रहे अपने गंतव्य की ओर! राहें भी चल रहीं थीं, हम भी चल रहे थे और हमारे साथ रोशन अँधेरा भी चल रहा था अपनी गति से, कैमरे के क्लिक्स भी अंत अंत तक कुछ न कुछ आहट समेट लेने के ध्येय से गतिमान थे ही… तो इस तरह रोम को अलविदा कहने का वक़्त आ गया और हमने अगले रोज़ सुबह सुबह स्टॉक होम के लिए उड़ान भरी.… जहाज़ की खिड़की के शीशे से झाँकता मन अचंभित था… अपनी धरती से कितने दूरहैं हम और फिर भी सांसें चल रहीं हैं..........
जिंदा हैं……?
कैसे तो भला.……?
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लहरें होती ही हैं ऐसी, उनसे पहचान हो जाए तो समंदर का भी पता मिल जाता है.…! अरे वाह, ये तो कितना बढ़िया कोइन्सिडेन्स है:: लहरें की स्वामिनी से ही तो सागर का पता मिला था!
रास्ते की एक तस्वीर बस से ही::
बचपन में कोई चौथी क्लास के जनरल नॉलेज बुक से रटे गए कुछ तथ्य कौंध गए.
जिंदा हैं……?
कैसे तो भला.……?